राजनीति के दस नाटक का अन्तिम भाग

हम पिछले तीन सप्ताह से राजनीति के दस नाटकों की पृष्ठभूमि तथा उसके पांच तरीकों पर चर्चा कर चुके हैं । इस भाग में हम शेष पांच नाटकों की चर्चा करेंगे तथा अगले सप्ताह से दो सप्ताह में समाधान की चर्चा पूरी करेंगे ।

भारतीय राजनैतिक व्यवस्था समाज को लोकतांत्रिक तरीके से गुलाम बनाने के उददेश्य से लगातार प्रयास करती है कि समाज हमेशा भावना प्रधान बना रहे और समाज में समझदारी बिल्कुल न बढ़े । विचार मंथन को निरूत्साहित करके भावना प्रधान तरीकों को आगे किया जाता है । संसद में कभी वैचारिक बहस नहीं होती ।  हमेशा भावनात्मक तरीके से चर्चा होती है । संसद का स्वरूप संस्थागत न होकर संगठनात्मक बन गया है ।  राजनैतिक दलों में भी निर्णय उपर से थोपे जा रहे हैं । संसदीय लोकतंत्र की शुरूआत ही दो विपरीत संगठनों के टकराव से शुरू होती है । स्कूल, कालेज में डिबेट बन्द होकर छात्र संगठन तेजी से बढ़ रहे हैं । केन्द्र से लेकर गांव तक गुटबाजी बढ़ रही है और अब तो बढ़ते-बढ़ते परिवार तक गुटबन्दी से प्रभावित होने लगे हैं । पहले गांव-गांव में चौपाल के माध्यम से संवाद होता था । अब संवाद की जगह विवाद का भय बन गया है । जब सर्वोच्च संसद में ही संवाद की जगह विवाद मुख्य आधार बन गया तो परिवार तो प्रभावित होगा ही । अच्छे अच्छे ना समझ विद्वान तर्क देते हैं कि लोकतंत्र में एक सशक्त विपक्ष आवश्यक है । यदि लोकतंत्र का अर्थ पक्ष विपक्ष के टकराव तक सीमित है तो ऐसे लोकतंत्र पर भी फिर से विचार करना चाहिये ।

राजनैतिक व्यवस्था निरंतर यह भी प्रयास करती है कि समाज शब्द की जगह राष्ट्र शब्द अधिक सम्मानित हो । समाज शब्द को नीचे गिराकर राष्ट्र शब्द को उपर उठाने का निरंतर प्रयास होता है । बच्चों तक को पढ़ाया जाता है कि राष्ट्र भाव, राष्ट्र प्रेम सर्वोच्च है । राष्ट्रगीत, राष्ट्र ध्वज, राष्ट्रीय एकता, राष्ट्रीय त्यौहार, को भावनायें के साथ जोड़ने की कोशिश होती है । कुछ नासमझ धर्म को सर्वोच्च सिद्ध करते हैं तो कुछ राष्ट्र को जबकि सच्चाई यह है कि समाज सर्वोच्च होता है । आदर्श स्थिति में राज्य और राष्ट्र की व्यवस्था बिल्कुल अलग अलग होती है किन्तु वर्तमान भारत में राष्ट्र और राज्य एक बनकर समाज को राष्ट्र से अलग कर दिये । राष्ट्र समाज का अंग होता है तो राज्य राष्ट्र का मैनेजर । वर्तमान समय में राष्ट्र समाज से उपर हो गया और राज्य राष्ट्र से उपर । सारी गल्तियां राज्य करता है और सारा दोष समाज पर डाल देता है । जब समाज से उपर राष्ट्र है और राष्ट्र से उपर राज्य तो दोष समाज का कैसे ? दो राज्य प्रमुख ट्रम्प और जिनपिंग राष्ट्र प्रमुख बन बैठे । ये दोनो यदि कभी युद्ध घोषित कर दें तो दुनियां के सात अरब व्यक्तियों का समाज इनके निर्णय के अनुसार पालन करने के लिये मजबूर है । हमारी भारत सरकार भी किसी पक्ष में कूद पड़ेगी और हमारा दायित्व है कि हमें राष्ट्र प्रेम के आधार पर मरने कटने के लिये तैयार रहना चाहिये । सामाजिक एकता को खंडित करके राष्ट्र और धर्म के विचार को मजबूत करना अप्रत्यक्ष गुलामी के अतिरिक्त कुछ नहीं । लेकिन खुलेआप समाज शब्द की जगह राष्ट्र या धर्म शब्द को महिमा मंडित करने का प्रयत्न लगातार जारी हैं ।

राज्य राष्ट्र का मैनेजर और राष्ट्र समाज का एक भाग होता है । राज्य को राष्ट्र यह दायित्व देता है कि वह समाज के अच्छे लोगों की सुरक्षा के लिये बुरे लोगों पर अंकुश लगावे । सिर्फ सुरक्षा और न्याय ही राज्य का दायित्व होता है । अन्य सभी कार्य राष्ट्र की अन्य ईकाइयां करती हैं । धर्म समाज का मार्गदर्शन करता है । सबकी अपनी-अपनी सीमाएं होती हैं । पश्चिम में लोकतंत्र का एक अपरिपक्व स्वरूप विकसित हुआ और भारत तक आते-आते वह स्वरूप समाज के लिये एक समस्या बन गया । राज्य समाज के मैनेजर की जगह अभिभावक बन गया । सुरक्षा और न्याय तंत्र का दायित्व होता है तथा अन्य जनकल्याण के कार्य करना उसका स्वैच्छिक कर्तव्य । राज्य ने अपने आप ही दायित्व और कर्तव्य की परिभाषाएं बदल दीं । उसने जनकल्याण के कार्यों को दायित्व मानना शुरू कर दिया और अपराध नियंत्रण को स्वैच्छिक कर्तव्य । पश्चिमी जगत से भी राज्य की इस परिभाषा को समर्थन मिला । राष्ट्र व्यवस्था को अस्तित्वहीन करके राज्य मालिक बन गया । धर्म गुरू निकम्मे हो गये । साहित्य और मीडिया या तो बिकाउ हो गया या चारण भाट सरीखा इस विकृत लोकतंत्र का गुणगान करने लगा । राज्य अब शिक्षा, स्वास्थ, धर्म स्थान सहित हर मामले में हस्तक्षेप करने लगा । सामाजिक कुरीति निवारण का दायित्व भी राज्य संभालने लगा । परिवार व्यवस्था गांव व्यवस्था तक राज्य नियंत्रित हो गई । रोजगार की भी चिन्ता राज्य करने लगा यहाँ तक कि व्यक्ति के भूख की भी जिम्मेदारी राज्य ने संभाल ली । निकम्मे धर्मगुरू राज्य से निवेदन करते हैं कि राज्य महिलाओं को सशक्त करे और राज्य ही शराब तम्बाकू गांजा रोके । राज्य द्वारा सम्मान और सुविधा प्राप्त विद्वान राज्य से निवेदन करते हैं कि राज्य शिक्षा और स्वास्थ का बजट बढ़ावें । ये सभी राज्य को लगातार याद दिलाते हैं कि रोजगार उपलब्ध करना राज्य का दायित्व है । दुनियां की अन्य राजनैतिक व्यवस्थाएं भी भारत सरकार को याद कराती हैं कि शिक्षा स्वास्थ रोजगार भोजन राज्य का पहला दायित्व है । परिणाम होता है कि राज्य सुरक्षा और न्याय की जगह जन कल्याण को ही अपना दायित्व मान लेता हैं ।

परिणाम होता है कि सुरक्षा और न्याय पिछड़ जाता है । न्यायालय और पुलिस भी जनहित में सक्रिय होकर ओवर लोडेड हो जाते हैं । सरकार का बजट भी एक प्रतिशत तक सिकुड़ कर सुरक्षा और न्याय को असुरक्षित कर देता है । तीन दिन पूर्व ही आपने देखा होगा कि महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री का कार्टून फेसबुक में फारवर्ड करने वाले भारतीय रिटायर्ड सैनिक को सरकारी गुन्डों ने भरपेट पीटा और कानून के अनुसार उन्हें तत्काल जमानत मिल गई । दूसरी ओर उसी शहर में कुछ लोगों ने अवैध नशा किया तो उन नशा करने वालों को सेशन कोर्ट से भी जमानत नहीं मिली । दोनों घटनाएं एक साथ हुई और कानून के अनुसार सम्पन्न हुई क्योंकि गुन्डागर्दी की तुलना में नशा करना सरकार की नजर में अधिक गंभीर अपराध है । गुन्डों को बेल, नशाबाजों को जेल भारत में जनहित का सरकारी खेल ।

भारत में राज्य हमेशा यह प्रयत्न करता है कि वह समाज में बिल्लियों के बीच बन्दर की भूमिका में रहे । बन्दर तीन प्रयत्न करता हैः- 1. बिल्लियों की रोटी कभी बराबर न हो 2. बन्दर रोटियों को बराबर करने में निरंतर सक्रिय दिखे किन्तु करे कभी नहीं 3. छोटी रोटी वाली बिल्ली के मन में असंतोष की आग हमेशा प्रज्वलित रहे । राज्य हमेशा तीनों दिशाओं में सक्रिय रहता है । आर्थिक असमानता हमेशा बढ़ती रहे । राज्य हमेशा इस असमानता को कम करने में प्रत्यक्ष रूप से तथा बढ़ाने में अप्रत्यक्ष रूप से सक्रिय रहे तथा राज्य हमेशा गरीबों को अमीरों के विरूद्ध टकराव के लिये प्रोत्साहित करे ।  

राज्य हमेशा टकराव में ही पंच बनकर हस्तक्षेप करता है । इसी तरह राज्य हमेशा श्रम शोषण के भी नये-नये तरीके खोजते रहता है । राज्य की मजबूरी है कि राज्य को अपनी सारी सक्रियता को बनाये रखने के लिये इन्हीं बिल्लियों से प्रति पांच वर्ष भी स्वीकृति भी लेनी पड़ती है । श्रम शोषण और आर्थिक असमानता को लगातार बढ़ाते रहने के बाद भी जन स्वीकृति के लिये राज्य एक प्रयत्न पूरी ईमानदारी के करता है कि कृत्रिम उर्जा को अधिक से अधिक सस्ता रखा जाये । कृत्रित उर्जा सस्ती रहने से आवागमन सस्ता रहेगा, श्रम मूल्य कम रहेगा, अमीर गरीब के बीच की खाई स्वाभाविक रूप से बढ़ती रहेगी तथा बुद्धिजीवी पूंजीपति पूरी तरह संतुष्ट रहेंगे । इसके साथ-साथ राज्य गरीब, ग्रामीण, श्रमजीवी, कृषि उत्पादक के सब प्रकार के उत्पादन तथा उपभोग की वस्तुओं पर भारी अप्रत्यक्ष कर लगाकर शिक्षा, स्वास्थ, भोजन आदि जन सुविधाओं पर खर्च करने का नाटक भी करता रहता है । सरकारी बिचौलिये विभिन्न माध्यमों से जनता को यह बात लगातार समझाते रहते हैं कि कृत्रिम उर्जा का सस्ता होना आम जनता के लिये बहुत आवश्यक है । कुत्ता सूखी हड्डी चबाकर अपने मुख से निकले खून के स्वाद से जिस तरह खुश रहता है उसी तरह जनता साइकिल पर भारी टैक्स और रसोई गैस की छूट के बाद भी बहुत खुश है क्योंकि साइकिल टैक्स अप्रत्यक्ष तथा रसोई गैस की छूट प्रत्यक्ष दिखती है । भारत की सभी आर्थिक समस्याओं का एक ही समाधान है कृत्रिम उर्जा में भारी मूल्य वृद्धि । सरकार सब प्रकार के आर्थिक नाटक करती है किन्तु ऐसा कभी नहीं करती ।

इस तरह राज्य भारत की जनता को लोकतांत्रिक तरीके से सम्मोहित करके उसको गुलाम बनाने के लिये जिन दस नाटकों का सहारा लेता है उन पर हम चार सप्ताह में व्यापक चर्चा किये हैं । अगले दो सप्ताह तक हम समाधान पर विस्तृत चर्चा करेंगे ।