परम्परागत परिवार प्रणाली या आधुनिक

माँ से बच्चे का जन्म होते ही न्यूनतम दो व्यक्तियों का अघोषित संगठन बन जाता है और मनुष्य इतिहास का पहला परिवार निर्मित होता है। इस प्रकार से परिवार की उत्पत्ति हुयी। जीवन-निर्वहन हेतु मनुष्य की बुनियादी आवश्यकता-पूर्ति, सुरक्षा, उत्तरजीविता के लिए एक व्यवस्था की आवश्यकता हुई । इस प्रकार से परिवारों का चलन प्रारम्भ हुआ ।

कालान्तर में अपनों के बीच परस्पर संवाद-आचार-व्यवहार के लिए एक व्यवस्था की आवश्यकता हुई । इस प्रकार से परिवार ही विकास क्रम से गुजरता हुआ एक नये स्वरुप में विकसित हुआ  I संयुक्त परिवार के रूप में विकसित हुआ जो प्रभाव, संचालन और व्यवस्था की दृष्टि से एक सम्पूर्ण इकाई माना गया । इसे संयुक्त परिवार कहा गया ।

मनुष्य के विकास के कालक्रम में, सभी मनुष्यों के बीच परस्पर संवाद आचार-व्यवहार के लिए व्यापक स्तर पर एक व्यवस्था विकसित हुई । इस प्रकार से समाज की उत्पत्ति हुयी । समाज की प्रथम इकाई के रूप में परिवार को माना गया ।

सृष्टि के प्रारम्भ से ही परिवार की संरचना शुरू हो गई । दुनियां के किसी भी देश मे किसी भी समय परिवार शब्द समाप्त नही हुआ भले ही समय समय पर उसके अर्थ बदलते रहे हो । पुराने समय मे परिवार का अर्थ था एक ही चूल्हे तथा एक मुखिया की व्यवस्था के अन्तर्गत रहने वाले रक्त संबंधियो का समूह । इस परिभाषा मे बाद मे बदलाव हुआ और परिवार का अर्थ पिता माता और बच्चों तक सिमट गया । यदि उसमे चाचा-चाची आदि भी शामिल हो तो उसे संयुक्त परिवार कहा जाने लगा ।

अनेक देशों मे संयुक्त परिवार के स्थान पर कबीला शब्द भी प्रचलित हुआ । प्राचीन काल के परिवार मे सम्पति पर परिवार का अधिकार होता था तथा परिवार के प्रत्येक सदस्य के सुख-दुख का दायित्व परिवार का होता था । बाद मे यह व्यवस्था बदल गई और सम्पति व्यक्तिगत तथा सुख-दुख भी व्यक्तिगत होने लगा । चीन मे परिवार की इस परिभाषा को समाप्त करके एक नई परिभाषा तैयार हुई जिसमें ‘परिवार‘ के स्थान पर ‘कम्यून‘ शब्द आ गया । इसमे रक्त संबंध से कोई मतलब नही रखा गया बल्कि आपसी सहमति के आधार पर एक साथ रहने वालों को कम्यून नाम दिया गया है ।

विवाह के चार उददेश्य होते हैंः- 1. शारीरिक इच्छा पूर्ति, 2. सन्तानोत्पत्ति, 3. माता पिता से कर्ज मुक्ति, 4. सहजीवन की ट्रेनिंग। स्वाभाविक है कि ये चारों उद्देश्य प्राप्त करने के लिये परिवार प्रणाली सबसे अच्छा माध्यम है ।

मैं यह अनुभव करता हूँ कि समाज व्यवस्था की प्रतिस्पर्धा में भारतीय प्रणाली सबसे व्यावहारिक और सफल रही है । पश्चिमी जगत तो परिवार प्रणाली का कोई व्यवस्थित स्वरूप ही नहीं दे सका तो साम्यवाद ने परिवार व्यवस्था को अस्वीकार करके कम्यून सिस्टम का असफल प्रयोग किया । इस्लाम और भारत ने परिवार व्यवस्था का उपयोग किया । जब भारत गुलाम हुआ तब अंग्रेजो ने अप्रत्यक्ष रूप से परिवार व्यवस्था को कमजोर करना शुरू किया । अंग्रेज जो काम डर-डर के तथा गुप्त रूप से कर रहे थे वह कार्य स्वतंत्रता के बाद डॉक्टर अम्बेडकर और पण्डित नेहरू ने मिलकर समाज सुधार के नाम पर शुरू कर दिया । इन दोनो ने मिलकर ऐसा ताना-बाना बुना कि संयुक्त परिवार व्यवस्था सम्मिलित परिवार व्यवस्था में बदल गई । परिवार में शामिल प्रत्येक सदस्य का अलग से संवैधानिक अस्तित्व भी हो गया और संवैधानिक अधिकार भी । इन दोनो ने मिलकर ऐसा घातक संविधान बनाया जिसमें धर्म जाति जैसे विघटनकारी शब्द तो शामिल कर दिये गये और परिवार व्यवस्था को संविधान से बाहर कर दिया गया । स्वाभाविक है कि परिवार को संवैधानिक मान्यता न मिलने के कारण राज्य को परिवार के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप की स्वतंत्रता मिल गई और हमारे तंत्र ने परिवार व्यवस्था को तोड़ने में समाज सुधार के नाम पर इन अधिकारों का खुलकर दुरूपयोग किया । सब जानते है कि महिला और पुरुष के एकाकार जीवन से परिवार व्यवस्था शुरू होती है । महिला और पुरूष कभी भिन्न वर्ग के रूप में हो ही नहीं सकते किन्तु हमारे नेताओं ने महिला और पुरूष को भिन्न-भिन्न वर्ग के रूप में स्थापित कर दिया । परिवार के सभी सदस्यों की सम्पत्ति हानि लाभ, यश अपयश, सुख दुख हमेशा संयुक्त होते हैं व्यक्तिगत नहीं । हमारे नेताओं ने परिवार के सदस्यों की सम्पत्ति, लाभ हानि, सुख दुख, सबको संयुक्त से हटाकर व्यक्तिगत कर दिया । पश्चिम के लोकतंत्र का अंधानुकरण तथा साम्यवाद को मिलाकर बनी हमारी अम्बेडकर नेहरू की खिचड़ी राजनैतिक व्यवस्था ने परिवार व्यवस्था को लगभग विकृत कर दिया। हमारी परिवार व्यवस्था कभी इतनी कमजोर नहीं रही जितनी आज है ।

भारत की संयुक्त परिवार व्यवस्था भारतीय संवैधानिक व्यवस्था के कारण तो संकट में है ही किन्तु पश्चिम के सांस्कृतिक आक्रमण का भी हम सफलतापूर्वक मुकाबला नहीं कर पा रहे । हमारी परम्परागत परिवार व्यवस्था आधुनिक परिवार प्रणाली के आक्रमणों का उत्तर नहीं दे पा रही । यह भी तो एक बड़ा संकट है । हमारी परम्परागत परिवार प्रणाली में परिवार का संचालक सबकी सहमति से न बनकर जन्म से बनने लगा । उसके कारण कुछ विकृतियां पैदा हुईः- 1. मुखिया की तानाशाही, 2.रूढ़िवादिता, पुराने से चिपकना और नए से बिदकना, पुराने पैर्टन को ही फॉलो करना । 3. प्रभाव, सामर्थ्य और अर्थ से रहित सदस्यों का परिवार में निम्नतर स्थान होना। 4. महिलाओं की हीन दशा व सीमित-संकुचित भूमिका । 5. बड़ों का या जबरन व अनावश्यक हस्तक्षेप, बड़ों का अपने छोटों पर सही-गलत रौब गाँठना । 6. व्यक्तिगत विकास में बाधा । 7. स्वतंत्रता का हनन, निजता की उपेक्षा, एकान्त की कमी का अखरना । 8. परम्परा के नाम पर सदस्यों को गलत रुप से दबाना, निर्बल सदस्यों का अपनी बात न मनवा पाना । 9. एक का बोझा, ढोवें सब; बोझ किसी का, ढोवे कोई; करे कोई-भरे कोई का चरितार्थ होना । 10. परिवार में कोई काम चोर, तो कोई कर कर के मरा जा रहा । कोई तो जान खपाये दे रहा है और कोई मजे उड़ा रहा है । 11. कानाफूसी, कान भरना, षड़यन्त्र व राजनीति का माहौल । स्पष्ट है कि वर्तमान में संयुक्त परिवार व्यवस्था दोषपूर्ण है । उसमे व्यक्ति पर परिवार व्यवस्था या मुखिया का अनुशासन तो है किन्तु व्यवस्था पर व्यक्ति समूह का नियंत्रण नहीं है । परंपरागत संयुक्त परिवारों के सदस्यों में घुटन अधिक है टूटन कम । आधुनिक परिवारों के सदस्यों में परिवार के प्रति टूटन अधिक है घुटन कम । परम्परागत परिवारों में अनेक लाभ होते हुये भी ये कुछ विकृतियां आधुनिक परिवार व्यवस्था की ओर आकर्षित करती हैं । दूसरी ओर आधुनिक परिवार व्यवस्था की विवेचना करें तो वहाँ अनुशासन की जगह उच्श्रृंखलता, परस्पर अविश्वास, निरन्तर छलकपट धोखा, बिना सोचे समझे मनमाने बदलाव के प्रयत्न, पति पत्नी के बीच भी अविश्वास का आगे के बच्चों पर सांस्कृतिक दुष्प्रभाव, परस्पर सहयोग की जगह परस्पर प्रतिस्पर्धा का भाव, स्वार्थ विस्तार, सामाजिक भाव में कमी, आदि अनेक विसंगतियां मौजुद हैं । परम्परागत परिवारों की महिलाएं परिवार के सुचारू संचालन के लिये अनुशासन, संतानोत्पत्ति, नैतिक उन्नति तथा सहजीवन को महत्वपूर्ण मानती हैं तो आधुनिक परिवारो की महिलाएं व्यक्तिगत स्वतंत्रता, उच्श्रृंखलता, सेक्स तथा भौतिक उन्नति को अधिक महत्व देती हैं । परम्परागत परिवार सामाजिक बदनामी से डरते हैं तो आधुनिक परिवार सामाजिक बदनामी को महत्वहीन समझते हैं ।

स्पष्ट है कि आधुनिक परिवार व्यवस्था बहुत घातक है । संवैधानिक व्यवस्था की सहायता पाकर इसकी शक्ति और अधिक बढ़ जाती है किन्तु यह भी स्पष्ट है कि हमारी वर्तमान पारम्परिक परिवार व्यवस्था इसी विकृत स्वरूप में आधुनिक परिवार व्यवस्था का मुकाबला नहीं कर सकती । हमें अब परम्परागत परिवार व्यवस्था में कुछ संशोधन करने होगे। हम परिवार की एक नई परिभाषा बनावें जिसके अनुसार संयुक्त सम्पत्ति तथा संयुक्त उत्तरदायित्व के आधार पर एक साथ रहने के लिये सहमत व्यक्तियों का समूह परिवार माना जाये । इस आधार पर परिवार में रहते हुये कोई सदस्य व्यक्तिगत सम्पत्ति नहीं रख सकता, किसी के पृथक संवैधानिक अधिकार नहीं होंगे, सम्पत्ति सबकी संयुक्त होगी किन्तु अलग होते समय अपनी सदस्य संख्या के आधार पर समान हिस्सा मिलेगा, महिला पुरूष का कोई भेद नहीं होगा । परिवार के प्रमुख का पद सबसे अधिक उम्र के व्यक्ति को दिया जायेगा जो राष्ट्रपति के समान सम्माननीय होगा तथा परिवार का मुखिया सब मिलकर चुनेंगे जो प्रधानमंत्री की तरह काम करेगा । अन्य नियम परिवार बैठकर बना सकता है । परिवार का कोई भी सदस्य कभी भी परिवार छोड़ सकता है या हटाया जा सकता है । परिवार के मुखिया का निर्णय अन्तिम होगा तथा प्रत्येक सदस्य इस निर्णय को मानने के लिये बाध्य होगा किन्तु यदि कहीं असहमति है तो परिवार प्रमुख पूरे परिवार की बैठक करके पूरे परिवार की सहमति से जो आदेश देंगे वह मुखिया के लिये बाध्यकारी होगा ।

इस प्रणाली से सम्पत्ति के विवाद समाप्त हो जायेंगे । परिवार से घुटन नहीं होगी । सरकारी हस्तक्षेप नहीं रहेगा । परिवार में उच्श्रृंखलता भी नहीं रहेगी । परिवार में सामूहिकता का भाव बनेगा । इस परिवार व्यवस्था में भारत की परम्परागत परिवार व्यवस्था, पश्चिम की लोकतांत्रिक व्यवस्था और कम्यून सिस्टम को मिलाकर बना है । इस प्रणाली का कम से कम एक परिवार में पचास वर्षों से सफल प्रयोग देखा जा सकता है ।

दुनियां में कई ऐसे लोग हैं जो यह मानते हैं कि जो कुछ परम्परागत है वही अंतिम है तो कुछ लोग यह भी मानते हैं कि जो कुछ परम्परागत है वह पूरी तरह गलत है । मैं इस मत का हूँ कि दोनो ही गलत हैं । हमें यथार्थवाद का मार्ग पकड़ना चाहिये । वर्तमान परिस्थितियों में मैं संशोधित परिवार प्रणाली को एक सफल मार्ग मान रहा हूँ ।

परिवार व्यवस्था को टूटने से बचाना हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता है । प्रणाली चाहे परम्परागत हो चाहे आधुनिक और चाहे प्रस्तावित । परिवार व्यवस्था को मजबूत होना चाहिये । इस दिशा में हम मिल बैठकर चिन्तन करें जिससे कोई अच्छा मार्ग निकल सके ।