आर्थिक मंदी, समस्या या समाधान
पूरी दुनिया मे आर्थिक मंदी का कुहराम मचा हुआ है । सभी पूँजीवादी देश भी इस मंदी से चिन्तित है तथा वामपंथी देश भी । चारो तरफ आपातकालीन उपाय खोजे जा रहे है । नये - नये पैकेज दिये जा रहे है । टैक्सो का सिस्टम भी बदला जा रहा है । भारत भी इस दिशा मे सतर्क कदम उठाने मे लगा हुआ है ।
मैने भी आर्थिक विश्लेषक के नाते समझना शुरू किया । कई नामी समाजशास्त्रियो से चर्चा की कि आर्थिक मंदी क्या है तो सबका उत्तर था कि अर्थिक मंदी मे सामान्य नागरिक की क्रय शक्ति घट जाती है । मैने भारत मे इस क्रय शक्ति पर विचार किया तो मुझे तो न आम आदमी की परिभाषा समझ मे आई न उस पर पड़ने वाला प्रभाव । मुझे तो कोई भी अर्थशास्त्री यह ’’ आम आदमी और उस पर प्रभाव ’’ की चर्चा के स्थान पर आयात निर्यात, सेन्सेक्स का गिरना, मुद्रा स्फीति का उतार चढाव, विकास दर आदि अनेक जालो मे उलझाने का उपक्रम करता रहा ।
आर्थिक मंदी का पहला असर दिखा कि पूरे विश्व मे डीजल - पेट्रोल की कीमत कुछ महिनो मे ही एक चैथाई रह गई है । प्रश्न उठता है कि क्या पूरी दुनिया के आम नागरिको की क्रय शक्ति एकाएक इतनी कम हो गई कि डीजल - पेट्रोल की मांग नही रही और मूल्य कम हो गये ? जब एकाएक इनका उत्पादन नही बढ़ा , खपत नही धटी, तो मूल्यो मे इतना अन्तर कहा से आया । अमेरिका के कुछ बैंको मे लोगो का जमा धन डूब गया, दुनिया के कुछ और बैंको पर खतरा आया, तो पहला तात्कालिक और गंभीर प्रभाव डीजल - पेट्रोल पर ही क्यो पड़ा ? भारत सरकार ने भी अपनी अर्थव्यवस्था के संकट को महसूस करते हुए तथा परिस्थितियां विपरित होते हुए भी पहले कदम के रूप मे डीजल - पेट्रोल मे मूल्य पचीस प्रतिशत कम कर दिये । भारत मे आर्थिक मंदी के कारण किन आम नागरिको की क्रय शक्ति घटने का खतरा था जिनको राहत देने के लिये इनके मूल्य कम किये गये ? यदि डीजल - पेट्रोल के दाम नही घटते तो इनकी खपत कम हो जाती । इससे क्या नुकसान संभावित था ? मुझे तो कुछ समझ नही आया कि वह कौन सा षडयंत्र था जिसके फूटते ही डीजल - पेट्रोल व्यवस्था के बीमार होने का खतरा पैदा हो गया जिससे आम आदमी संकट मे फंस सकता था । जिसके कारण भारत सरकार को यह सक्रियता दिखानी पड़ी ।
आर्थिक मंदी का एक दूसरा तात्कालिक प्रभाव दिखा कि सेन्सेक्स तेजी से नीचे आ गया । आज से साढ़े चार वर्ष पूर्व जब मनमोहन सिह जी प्रधानमंत्री बने थे उस दिन भारत मे सेन्सेक्स 6300 था जो तीन दिन बाद घटकर 5000 हो गया था । चार वर्षो मे ही सेन्सेक्स पांच हजार से बढ़कर इक्कीस हजार हो गया और अभी के छः महिनो के बाद सेन्सेक्स इक्कीस से धटकर ग्यारह हजार रह गया । मुझे समझ नही आ रहा कि आर्थिक मंदी क्या है ? यदि साढ़े चार वर्षो मे सेन्सेक्स पांच हजार से धटते - बढते अन्त मे ग्यारह हजार पर है तो यह मन्दा हुआ कि तेज । यदि हम नौ प्रतिशत भी विकास दर मान ले तब भी साढ़े चार वर्षो मे ग्यारह हजार से कम ही होता है । फिर इतनी चिन्ता क्यो ? यदि सेन्सेक्स पांच से बढ़कर इक्कीस हुआ तब लाभ किनको हुआ और इक्कीस से घटकर ग्यारह हुआ तो हानि किनको हुई ? क्या प्रभाव पड़ा सामान्य जन पर ?
विकास दर के लिये भी बहुत चिंतित है अर्थशास्त्री । मुझे तो पता ही नही चलता कि इसके बढ़ने - घटने से किन लोगो को लाभ हानि होती है । मैने सुन रखा है कि विकास दर गरीब वर्ग की करीब एक प्रतिशत के आस - पास और सम्पन्नो की सत्रह प्रतिशत है जिसका औसत नौ मानते है । अब यह विकास दर एक और तेरह होने की उम्मीद है जिसका औसत सात हो जायगा । हो सकता है कि यह कुछ और घट जावे किन्तु गरीब श्रमजीवी की विकास दर मे नगण्य ही कमी आएगी और वह एक के आस पास ही रहने की उम्मीद है ।
एक चैथा शब्द है आम आदमी । सारा षडयंत्र इसी शब्द मे छिपा है सरकार ने गरीबी रेखा का एक मानक बना रखा है कि ग्रामीण क्षेत्र का व्यक्ति तेरह रूपया प्रतिदिन और शहरी क्षेत्र का उन्नीस रूपया प्रतिदिन से कम हो तो गरीब माना जायगा । ऐसे गरीबो की संख्या सरकारी रेकार्ड मे करीब बीस करोड़ के आस - पास है । अभी कुछ माह पूर्व अर्जुन सेन गुप्त आयेाग बना जिसने रिपोर्ट दी कि भारत मे ऐसे गरीबो की संख्या करीब अस्सी करोड़ है जो बीस रूपया प्रतिदिन से भी कम पर गुजर बसर करते है । समझ मे नही आता कि तेरह रूपया का एक मानक रहते हुए एक नया मानक बीस रूपया मानकर सर्वेक्षण की जरूरत क्या थी ? शायद आंकड़े बढ़ाकर दिखाना उद्देश्य रहा हो । अब हम इन बीस रूपया प्रतिदिन मे कम वालो को आम आदमी मान ले और इससे ज्यादा वालो को खास तो प्रश्न उठता है कि किसकी क्रय शक्ति कम हुई ? ये बीस रूपया से कम वाले न तो डीजल पेट्रोल पर ज्यादा निर्भर है न सेन्सेक्स पर । ये निर्भर है अपने शारीरिक श्रम पर । पहले भी उपेक्षित था और आज भी है । फिर इन पर क्या प्रभाव पडने वाला है ?
आर्थिक मंदी का सर्वाधिक हल्ला सुनाई देता है जमीन और मकानो की मंदी पर । जमीनो के मूल्य कम हो रहे है । मकानो के ग्राहक नही मिल रहे । मुझे समझ मे नही आता कि यह मूल्य ह्रास समस्या है या समाधान । जमीनो के दाम घट रहे है तो समाज के लिये संतोश का विषय है कि चिन्ता का ? मकान खरीदने वालो की राहत के लिये ब्याज सस्ता किया जा रहा है । जब मकानों का दाम घट रहा है तो फिर खरीदने वालो को राहत क्यो ? मुझे तो आज तक समझ मे नही आया कि आर्थिक मंदी का अस्सी करोड़ लोगो पर कैसे बुरा प्रभाव पड़ रहा है ।
बेरोजगारी का भी खूब हल्ला हो रहा है । मुझे तो अब तक अस्सी करोड़ श्रमजीवियों या गरीबो पर बेरोजगारी का कोई खतरा नही दिखा । जो शेष बीस करोड़ बीस रूपया से अधिक वाले लोग है उनकी बुद्धि का मूल्य अवश्य कम हुआ है । ऐसे लोगो मे कुछ बेरोजगार भी हो सकते है । यदि ऐसे कुछ लोगो के रोजगार घट जावे तो चिन्ता की बात क्या है ? हजारो रूपया रोज कमाने वाले कुछ दिन कम कमा लेगे या घर बैठ जायंगे तो कोई बड़ी बात नही है । रोजगार मे जो भी कमी हो रही है या हो सकती है वह सब बुद्धिजीवी शहरी सम्पन्न रोजगारो मे है और वह भी पिछले पांच वर्षो मे बेतहाशा बढ़े रोजगार से है न कि श्रमजीवी गरीब ग्रामीण के रोजगार पर ।
आर्थिक मंदी का अर्थ आम नागरिको की इच्छा शक्ति मे कमी है न कि वस्तुओ की मांग मे कमी । यदि किन्ही वस्तुओ के मूल्य अपेक्षा से बहुत अधिक बढ़ गये हो तथा आम लोगो को भविष्य मे मूल्य कम होने की संभावना हो तो वस्तुओ की मांग भी कम हो जाती है ओर मूल्य भी । किन्तु लोगो की क्रय शक्ति कोई ऐसी चीज नही है जो एकाएक पूरे विश्व मे कम हो जावे । मेरे अपने परिवार मे एक कार खरीदने की तैयारी थी तथा एक जमीन भी खरीदने का विचार था । एकाएक जब आर्थिक मंदी का प्रचार हुआ तो हमारे परिवार वालो ने कार खरीदने का विचार कुछ महिनो के लिये स्थगित कर दिया इसके विपरीत ग्राहक खोजकर जमीन बेच दी जबकि पहले खरीदने की योजना थी इस परिवर्तन का क्रय शक्ति से कोई सम्बन्ध नही था । सम्बन्ध सिर्फ यही था कि पहले खरीदी हुई वस्तु के मूल्य बैंक ब्याज की अपेक्षा अधिक बढ़ जाने की संभावना थी जो पलटकर घट जाने की संभावना मे बदल गई । ऐसी संभावना मे सरकारों की क्यो भूमिका होती है । यदि यह बजार का खेल है तो इस खेल से बाजार का ही लाभ या हानि होती है जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव इस खेल मे शामिल खिलाडियों पर होता है, खेल से बाहर रहने वालो पर नही । सरकारे यदि इस खेल से लाभ उठाते समय मूक दर्शक थी तो अब इतनी चिन्तित किनके लिये है । मैने आर्थिक मंदी के हल्ले के सात दिन बाद ही सुना कि किसी उद्योगपति की सम्पत्ति हजार करोड़ कम हो गई तो किसी की दो हजार करोड़ । इनकी पूँजी इसी तरह बढ़ी भी थी । पता नही सरकार क्यो इतनी चिन्तित हुई कि उसने पैकेज पर पैकेज देने शुरू कर दिये । यदि बाजार मे डीजल - पेट्रोल की मांग और मूल्य घट जावे, कार और स्कूटर सस्ते हो जावे बुद्धिजीवियो की मांग और मूल्य कम हो जावे , जमीन सस्ती हो जावें तो यह समाज के श्रमजीवी ग्रामीण गरीब के लिये समस्या का विस्तार है या समाधान । यदि किसी साधारण व्यक्ति की क्रय शक्ति से बाहर रहने वाला मकान उसकी शक्ति के अन्दर आ जावे तो ऐसी आर्थिक मंदी तो आगे भी जारी रहनी चाहिये भले ही ऐसी मंदी से कुछ बड़े - बड़े लोगो की क्रय शक्ति घट रही हो या उनके कल कारखाने बन्द हो रहे हो या ऐसी बन्दी से कुछ लोग बेरोजगार हो रहे हों ।
हो सकता है कि दुनिया के अन्य देशो पर ऐसी मंदी का कोई बुरा प्रभाव पड़ा हो या या पड़ने की उम्मीद हो किन्तु भारत मे तो इससे कुल मिलाकर लाभ ही हुआ है । जब भूमि भवन के मूल्य कम हो रहे हो तब खरीदने वालो का सस्ते ब्याज पर कर्ज दिया जावे और जब भूमि भवन मंहगे हो तब अधिक ब्याज पर कर्ज दिया जावे ऐसी सरकारी नीतिया बिल्कुल स्पष्ट करती है कि सरकारो को श्रमजीवी गरीब ग्रामीण की कोई चिन्ता नही । इसके विपरीत सरकारें शहरी पूँजीपति बुद्धिजीवियो के लिये अधिक चिन्तित रहती है । दुनिया के अन्य देशो का तो यह स्वभाव है ही क्योकि उनकी तो पूरी की पूरी अर्थ व्यवस्था ही इन्ही के सहारे चलती है किन्तु भारत का हाल तो वैसा नही । इसलिये मेरा आग्रह है कि दुनिया मे आई व्यापक मंदी का भारत की सरकार और जनता को स्वागत करना चाहिये । बहुत प्रतीक्षा के बाद तो ऐसा अवसर आया है । अब हाय तौबा करना ठीक नही ।
इस समय पूरी दुनियां मे दो प्रकार का अर्थ व्यवस्थाएँ है 1. राज्य नियंत्रित 2. राज्य संरक्षित । राज्य नियंत्रित व्यवस्था को समाजवाद या साम्यवाद कहा जाता है और राज्य संरक्षित को पूँजीवाद । राज्य नियंत्रित व्यवस्था तो पूरी तरह असफल और अव्यावहारिक घोषित हो चुकी है । राज्य संरक्षित अर्थव्यवस्था बढ़ रही है । इस व्यवस्था के अन्तर्गत अर्थ व्यवस्था को स्वतंत्र नही होने दिया जाता बल्कि तब तक आगे बढ़ने की छूट दी जाती है जब तक पूँजीवाद संकट मे न आ जावे । जब तक भूमि , भवन, सेन्सेक्स, मुदा्र का महत्व बढ़ता रहा तब तक सरकार चुप रही और ज्योंही उसका प्रभाव घटना शुरू हुआ सरकारे सक्रिय हो गई । समाजवादी या साम्यवादी अर्थव्यवस्था की तो अब छाती पीटने के अलावा कोई भूमिका बची नही है । पूरी दुनिया ने साम्यवाद को भी नकार दिया है और समाजवाद को भी । भारत मे अब भी अनेक ऐसे लोग है जो साम्यवाद समाजवाद की प्रतीक्षा मे बौद्धिक कसरत करते रहते है । ज्योंही पूँजीवाद के दुष्परिणाम सामने आते है त्योही ये समाजवाद, साम्यवाद के समर्थन मे कलम कागज निकालकर सक्रिय हो जाते है । ऐसे लोगो की बात हम छोड़ भी दे तो हमे वर्तमान पूँजीवाद का विकल्प तो तलाशना होगा ही । इस पूँजीवादी व्यवस्था के सहारे तो हमारी अर्थव्यवस्था ठीक से चल नही सकती । मेरे विचार मे तीन विकल्प हो सकते है। 1. अर्थ व्यवस्था पूरी तरह राज्य नियंत्रण मुक्त 2. एक स्वतंत्र अर्थव्यवस्था जो लोकतंत्र के अन्तर्गत न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका के समान बराबर संवैधानिक अधिकार युक्त हो 3. विकेन्द्रित अर्थ व्यवस्था जिसमें प्रत्येक इकाई को सीमित मात्रा मे स्वतंत्र आर्थिक अधिकार हों । क्या हो यह भिन्न विषय है किन्तु कोई न कोई विकल्प हो अवष्य । इन मुददो पर विचार मंथन होना चाहिये ।
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