ज्ञान, बुद्धि, श्रम और शिक्षा

  1. ज्ञान और शिक्षा अलग-अलग होते है । ज्ञान स्वयं का अनुभवजन्य निष्कर्ष होता है तो शिक्षा किसी अन्य द्वारा प्राप्त होती है;
  2. ज्ञान निरंतर घट रहा है और शिक्षा लगातार बढ़ रही है । स्वतंत्रता के बाद भारत में भी शिक्षा लगभग चार गुनी बढ़ी है तो ज्ञान उसी मात्रा में कम हो गया है;
  3. बुद्धि और विवेक में बहुत फर्क होता है । विवेक निष्कर्ष निकालता है कि क्या करने योग्य है और क्या नहीं । बुद्धि निष्कर्ष के आधार पर कार्य पूरा करने का माग तलाशती है;
  4. विवेक और ज्ञान भी अलग-अलग होते है । ज्ञान सब प्रकार अच्छे-बुरे कार्यो के लाभ - हानि के अनुभव तक सीमित होता है तो विवेक करने योग्य और न करने योग्य कार्यो को अलग कर देता है;
  5. शिक्षा हमेशा व्यक्ति की बौद्धिक क्षमता का विस्तार करती है चाहे व्यक्ति ज्ञान की दिशा में हो अथवा आपराधिक कार्यो में लिप्त हो । शिक्षा कभी चरित्र निर्माण का माध्यम नहीं होती, सिर्फ सूचना तक सीमित होती है;
  6. हर बुद्धिजीवी समाज के समक्ष यह सिद्ध करता है कि शिक्षा का चरित्र निर्माण पर प्रभाव पड़ता है किन्तु यह बात गलत है;
  7. शिक्षा पूरी तरह शासन मुक्त होनी चाहिये । शिक्षा पर सरकार को किसी प्रकार का कोई धन खर्च नहीं करना चाहिये क्योंकि शिक्षा अच्छे और बुरे दोनों की क्षमता के विस्तार में भेद नहीं करती;
  8. ज्ञान के तीन स्रोत होते हैः-1. जन्म पूर्व के संस्कार 2. पारिवारिक वातावरण 3. सामाजिक परिवेश । परिवार व्यवस्था और समाज व्यवस्था को कमजोर करने के कारण पूरी दुनियां में और विशेषकर भारत में ज्ञान तेजी से घट रहा है;
  9. पिछले कुछ हजार वर्षो से बुद्धिजीवियों ने भारत में श्रम शोषण के अनेक तरीके खोजे है । स्वतंत्रता के पूर्व जाति आरक्षण का सहारा लिया गया तो स्वतंत्रता के बाद शिक्षा विस्तार, जातीय आरक्षण तथा कृत्रिम उर्जा मूल्य नियंत्रण को आधार बनाया गया;
  10. ज्ञान हमेशा सकारात्मक दिशा में निष्कर्ष निकालता है तो बुद्धि दोनो दिशाओं में चलायमान रहती है;
  11. सरकार हमेशा श्रमजीवियों के पक्ष में दिखती है और रहती है हमेशा बुद्धिजीवियों के पक्ष में। साम्यवादी इस मामले ये सबसे अधिक सक्रिय रहते है बुद्धिजीवियों के पक्ष में और दिखते है श्रमजीवियों के साथ।
  12. भीमराव अम्बेडकर की सभी नीतियां श्रमजीवियों के विरूद्ध और बुद्धिजीवियों के पक्ष में रही । आज भारत का हर अवर्ण या सवर्ण बुद्धिजीवी अम्बेडकर जी का प्रशंसक है;
  13. भारत की सम्पूर्ण अर्थनीति गरीब, ग्रामीण, श्रमजीवी उत्पादकों के विरूद्ध पूँजीपति, शहरी, बुद्धिजीवी उपभोक्ताओं के पक्ष में कार्य करती है;
  14. शिक्षा को योग्यता और कार्यक्षमता विस्तार के माध्यम तक सीमित होना चाहिये था किन्तु भारत में शिक्षा योग्यता की जगह रोजगार के अवसर का माध्यम बन गयी है;
  15. वर्तमान समय में बुद्धिजीवियों द्वारा श्रम के विरूद्ध किये जाने वाला षडयंत्र एक बहुत बड़ा अन्याय है । इसे प्राथमिकता के आधार पर समाधान की आवश्यकता है;
  16. गरीब, ग्रामीण, श्रमजीवी तथा उत्पादकों को न्याय मांगने या न्याय के लिये संघर्ष करने की प्रेरणा देना असामाजिक कार्य माना जाना चाहिये । क्योंकि इससे वर्ग विद्वेश बढ़ता है ।
  17. पूँजीपति, शहरी, बुद्धिजीवी तथा उपभोक्ताओं को शोषितों की सहायता के लिये प्रेरित करना, सामाजिक कार्य होगा । तात्कालिक रूप से सरकार को समझाना या मजबूर करना चाहिये;
  18. भारत में अविकसित, अशिक्षित क्षेत्रों के निवासियों की तुलना में विकसित तथा शिक्षित क्षेत्रों के निवासियों में ज्ञान विवेक और नैतिकता का अधिक पतन हुआ है ।

सम्पूर्ण समाज में स्वार्थ, हिंसा तथा अनैतिकता का विस्तार हो रहा है । शिक्षा व्यक्ति की क्षमता का विकास करती है । नैतिकता मात्र का नहीं । एक ही गुरू से एक साथ एक ही प्रकार की शिक्षा लेने वाले तो शिक्षार्थीयों में एक युधिष्ठिर तथा दूसरा दुर्योधन बन जाता है । स्पष्ट है कि शिक्षा का चरित्र निर्माण से कोई संबंध नहीं । यही कारण है कि ज्यों ज्यों भारत में शिक्षा का तेज गति से विस्तार हो रहा है उतनी ही तेज गति से स्वार्थ, हिंसा तथा अनैतिकता भी बढ़ रही है । दोनों का कोई संबंध नहीं है । आवश्यक नहीं कि चरित्र पतन के विस्तार में शिक्षा की कोई भूमिका रही हो किन्तु चरित्र पतन बढ़ने के साथ-साथ यदि शिक्षा का विस्तार होता है तो चरित्र पतन की भी गति बढ़ जाती है । क्योंकि शिक्षा का विस्तार पतित चरित्र को अधिक प्रभावशाली बनाता है । भारत में यही हो रहा है ।

 

जातीय आरक्षण के माध्यम से स्वतंत्रता के पूर्व सफलता पूर्वक श्रम शोषण किया जाता था । स्वतंत्रता के बाद अम्बेडकर जी ने सवर्ण, अवर्ण बुद्धिजीवियों का जातीय आरक्षण के माध्यम से समझौता कराकर श्रम शोषण जारी रखने का मार्ग प्रशस्त कर दिया । साम्यवादियों ने कृत्रिम उर्जा को सस्ता रखने का दबाव बनाकर श्रमषोषण का एक और आधार बना दिया । सशक्त बुद्धिजीवियों ने सरकार पर दबाव डालकर शिक्षा का बजट बढ़वाया । यहाँ तक कि बुद्धिजीवियों ने गरीब, ग्रामीण, श्रमजीवी एवं उत्पादकों की भी कोई परवाह नही की और उनके उत्पादन, उपभोग की वस्तुओं पर भारी कर लगा कर अपना वेतन,  सुविधा, शिक्षा का बजट बढ़वाते रहे । निरंतर हो रही किसान आत्महत्या तथा उपभोक्ता वस्तुओं का लगातार सस्ता होना यह प्रमाणित करता है कि बुद्धिजीवियों का षडयंत्र सफल हो रहा है । साम्यवादियों ने बडी बेशर्मी से गरीब तबके को यह विश्वास दिलाया कि कृत्रिम उर्जा मूल्य नियंत्रण तथा शिक्षा का विस्तार ही उनके हित में है । बेचारे नैतिकता प्रधान गरीब, ग्रामीण, श्रमजीवी, उत्पादक इन चालाक संगठित बुद्धिजीवियों पर विश्वास करके ठगे गये ।

 

मैं मानता हूँ कि बडी संख्या में बुद्धिजीवी यह जानते ही नहीं कि वे श्रमजीवियों के साथ अन्याय कर रहे हैं । वे भी यह समझते हैं कि सरकार की यह शिक्षा विस्तार, कृत्रिम उर्जा नीति श्रमिकों के हित में है । बड़ी संख्या में बुद्धिजीवी जानबूझकर ऐसा नहीं करते । यदि उन्हे यह पता चले कि वे अन्याय कर रहे हैं तो अनेक बुद्धिजीवी भी इसका समर्थन छोड़ देंगे किन्तु उन्हें बताने वाला चाहिये । यह सच्चाई गरीब, ग्रामीण, श्रमजीवी, उत्पादकों को बताना भी घातक है क्योंकि पहली बात तो यह है कि उन्हे संगठित गिरोहो ने भरपूर विश्वास दिला रखा है दूसरी बात यह भी है कि इससे वर्ग विद्वेष, वर्ग संघर्ष का खतरा बढ़ जायेगा । इसलिये बुद्धिजीवियों को ही सच्चाई बताने की जरूरत है । बडी संख्या में बुद्धिजीवी इस अनैतिकता को समझेगे और श्रम शोषण के विरूद्ध आपका साथ देंगे ।

 

समस्या बहुत विकराल भी है और जटिल भी । समस्या विश्वव्यापी होते हुये भी भारत में बहुत बढ़ी हुई है । इसके समाधान के लिये चौतरफा प्रयास करने होंगे । शुरूआत सरकार पर दबाव बनाने से हो सकती है । 1. ज्ञान वृद्धि के लिये परिवार गांव और समाज व्यवस्था को अधिक निर्णय के अधिकार दिये जाने चाहिये क्योकि ज्ञान के विस्तार में यही प्रमुख सहायक होते है; 2. शिक्षा को पूरी तरह स्वावलम्बी और शासन मुक्त होना चाहियें । शिक्षा पर होने वाला खर्च तथा उसकी नीति समाज संचालित होनी चाहिये, राज्य संचालित नहीं। 3. श्रम और बुद्धि के बीच वर्तमान आर्थिक असंतुलन बंद होना चाहिये । गरीब, ग्रामीण श्रमजीवी तथा उत्पादकों के उत्पादन और उपभोग की सभी वस्तुएं कर मुक्त होनी चाहियें । 4. पूँजीपतियों, शहरी आबादी बुद्धिजीवी तथा उपभोक्ताओं को किसी भी प्रकार की आर्थिक सुविधा बंद की जानी चाहिये । रोजगार को श्रम के साथ जोड़ा जाना चाहिये और बौद्धिक रोजगार को बाजार पर स्वतंत्र कर देना चाहिये ।