तिल का ताड़
भारत में यह प्रवित्ति लगातार बढ़ती जा रही है कि कुछ लोग अलग-अलग गुट बनाकर मौके की तलाश में रहते है और कोई साधारण सी घटना को भी आधार बनाकर ऐसा तिल का ताड़ बनाते है कि कुछ दिनों तक उक्त घटना उस समय की महत्वपूर्ण घटना बनकर सुर्खियों में छा जाया करती है। भारत में ऐसे अनेक गुट तो लम्बे समय से अस्तित्व में रह रहे है किन्तु कुछ वर्षो मे जब से मीडिया ने व्यावसायिक स्वरूप ग्रहण किया है तब से वह स्वयं भी ऐसे गुट में शामिल हो गया है। स्थिति यह है कि पहले प्रिन्ट मीडिया उतना प्रभाव नहीं डाल पाता था और नीयत भी निम्नतम स्तर तक व्यावसायिक नहीं थी। मीडिया को यह भय था कि सीमा से अधिक नीचे उतरने पर उसकी विश्वसनीयता पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है। अब दृश्य मीडिया के व्यावसायिक स्वरूप ग्रहण करने के बाद प्रतिष्ठा की कोई मजबूरी नही रही । पहले मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहे जाने के कारण अपनी प्रतिष्ठा के प्रति चिन्तित रहता था। अब लोक तंत्र के तीन स्तंभो की छवि गिर जाने के बाद मीडिया को सुविधा हो गई है कि वह भी तो उसी भ्रष्ट लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है । यही कारण है कि अब मीडिया अपना न्यूशन्स वैल्यू बढ़ाने का एक अवसर भी हाथ से नही छोड़ता । वह न नैतिकता-अनैतिकता की बात सोचता है न सामाजिक प्राथमिकता की । वह तो चिन्ता करता है सिर्फ उच्च वर्ग में फैलने वाले मीडिया के भय के विस्तार की । यदि भय बढ़ता है तो पूरा मीडिया इस निर्माण के पीछे एक होकर लग जाता है।
रूचिका गिरहोत्रा प्रकरण भी वैसा ही प्रकरण बन कर सामने आया था । वर्ष 1990 में रूचिका गिरहोत्रा एक चौदह वर्ष करीब की एक नाबालिग लड़की थी । रूचिका टेनिस बहुत अच्छा खेलती थी और उसकी प्रगति की अच्छी संभावनाएँ थी । रूचिका देखने में भी बहुत सुन्दर और आकर्षक थी । उसी कालखंड में उस क्षेत्र में राठौर एक उच्च पुलिस अफसर थे, सम्भवतः डी. आई. जी. । उस समय राठौर की उम्र पचास वर्ष की रही होगी। राठौर एक ईमानदार और दबंग अफसर माने जाते थे । कुछ जिद्दी और झक्की स्वभाव भी था । स्वाभाविक था कि ऐसे लोगों के विरोधी भी बन जाया करते है। राठौर के भी पक्ष-विपक्ष में गुट बन्दी थी । राठौर खेल प्रेमी भी थे और हो सकता है कि लंगोट के भी कच्चे रहे हो ।
रूचिका उभरती हुई टेनिस खिलाड़ी थी और राठौर खेल प्रेमी । रूचिका एक चौदह वर्ष की सुन्दर लड़की थी और राठौर पचास वर्ष का आई.पी.एस. पुलिस अफसर पदधारी मर्द। राठौर ने रूचिका के खेल की कुछ सीमा से अधिक प्रशंसा करनी शुरू कर दी और एक दिन रूचिका के शरीर पर प्यार से हाथ भी फेरा। उस प्यार भरे हाथ फेरने में कितनी वासना थी कितना वात्सल्य यह घटनाओं से स्पष्ट नहीं होता । दोनो ही पक्षों के अपने अपने तर्क हैं किन्तु रूचिका और उसके परिवार वालों ने उसमें वासना महसूस की और उन्होने इस आधार पर रिपोर्ट कर दी थी । पहले तो राठौर नें इसकी सफाई दी और इन्कार किया और रूचिका के परिवार के ना मानने पर राठौर ने रूचिका के परिवार पर पुलिसिया अत्याचार किये। पुलिसिया अत्याचार रूचिका के लिये नहीं किये गये थे बल्कि रूचिका और उसके परिवारों द्वारा राठौर के विरूद्ध की जाने वाली राजनैतिक, सामाजिक कार्यवाही के विरूद्ध दर्ज केस वापस लेने या मुँह बन्द करने के निमित किये जा रहे थे ।
इस बीच रूचिका के पिता ने अपना दूसरा विवाह कर लिया था , जो रूचिका की ईच्छाओें के विरूद्ध था और राठौर प्रकरण के करीब चार-पाँच वर्ष बाद रूचिका ने आत्महत्या कर ली थी । आत्महत्या का तात्कालिक कारण पारिवारिक विवाद ही बताया गया था । भले ही बाद में उस आत्महत्या को राठौर अत्याचार के साथ जोड़ा जा रहा था । किन्तु यह बात सच थी कि रूचिका का परिवार और राठौर एक दूसरे पर आक्रमण करने में पूरी ताकत से लगे हुये थे जिसमे राठौर अपने पद का दुरूपयोग भी करते थे । उन्नीस वर्षों से चल रहे इस शह और मात के खेल के बाद न्यायलय का फैसला आता है। न्यायालय आई.पी.एस. राठौर को दोषी मानकर छः माह की सजा सुनाता है और इस सजा घोषणा के बाद ही मीडिया का खेल शुरू हो जाता है। मीडिया को यह प्रकरण अपना न्यूशेन्स वैल्यू बढ़ाने के लिये सर्वाधिक उपयुक्त दिखता है। मीडिया तत्काल मामले को लपक लेती है । कहा तो यहाँ तक जाता है कि आई.पी.एस. राठौर की इस एक लाछंन के अतिरिक्त अन्य मामलो में अच्छी सेवाएँ देखते हुये सरकार ने क्रम से हटकर भी तरक्कियाँ दी और उन्हें राष्ट्रीय स्तर के पुरस्कार भी दिये गयें । इस विशेष तरक्की और पुरस्कार से प्रभावित उनके साथी पुलिस अधिकारी उनसे बहुत बैर भाव रखते थे । इन सबने भी मीडिया को आर्थिक सहायता की तथा प्रोत्साहित किया । मीडिया ने तिल का ताड़ बना दिया । पूरे देश का ध्यान एक अकेली घटना की ओर केन्द्रित हो गया । सरकारे विशेष सक्रिय हो गई । न्यायालय भी लीक से हटकर सक्रिय हुये । राठौर की फांसी की मांग उठने लगी । राठौर की मेडल वापसी की प्रक्रिया शुरू हुई । सात दिनों तक देशभर में इस प्रकरण की उथल पुथल मची रहीं । मीडिया का उद्देश्य पूरा हुआ । मीडिया राठौर प्रकरण को छोड़ कर किसी दूसरे शिकार की खोज में लग गया । तूफान ठंडा हो गया । अब किसी को चिन्ता नहीं कि राठौर का क्या हुआ ? अब कोई रूचिका की आत्मा की शान्ति के लिये विशेष प्रार्थना सभा नहीं कर रहा । ताड़ अब पुनः तिल बनकर अपना वास्तविक स्वरूप ग्रहण कर रहा है।
मैं स्वयं हरियाणा गया था । मैने पूरे प्रकरण को नजदीक से समझा । मैं न रूचिका को जानता हूँ न ही राठौर को । फिर भी मैं हरियाणा गया क्योंकि मैं सच्चाई जानना चाहता था । हो सकता है कि राठौर की रूचिका के प्रति नीयत खराब हो, मैं यह भी मानता हूँ कि राठौर ने रूचिका परिवार के न्यायिक अधिकारों के संघर्ष में पद का दुरूपयोग किया । किन्तु मैं यह नहीं मानता कि ऐसे प्रकरणों के समाधान के लिए मीडिया ट्रायल उचित प्रक्रिया है। उन्नीस वर्ष तथा न्यायालय द्वारा दंडित होने के बाद किसी एक ऐसे प्रकरण में इस प्रकार भावनात्मक उबाल पैदा करना अपराध माना जाना चाहिये । और जब इससे कई गुना अधिक गंभीर अत्याचार, बलात्कार, हत्या के प्रकरण रोज हो रहे है और सक्षम अधिकारियों द्वारा दबाये भी जा रहे हैं किन्तु उस पर लेश मात्र भी ध्यान नहीं । टेस्ट केस को उछाल कर वाहवाही लूटी जा सकती है, अपना न्यूशेन्स वैल्यू भी बढ़ाया जा सकता है, उस वैल्यू का दुरूपयोग भी किया जा सकता है किन्तु व्यवस्था मजबूत नहीं की जा सकती । मेरा तो अनुभव यह है कि ऐसे प्रयत्न व्यवस्था को गंभीर नुकसान भी पहुँचाते है।
यह संपूर्ण प्रकरण मीडिया का खेल है जिसने कुछ समय के लिये हमारी भावनाओं को उद्वेलित कर दिया है और खेल ख्तम होते ही सबकुछ पूर्ववत् हो जायेगा तथा मदारी अपना ड़मरू लेकर महाराष्ट्र के बाल ठाकरे राज ठाकरे मुलायम अमर सिंह प्रकरण की ओर चला जाएगा ।
प्रश्न यह उठता है कि ऐसा प्रयत्न सफल क्यों होता है। संपूर्ण विश्व की ही तरह भारत में भी एक व्यवस्था बनी हुई है जिसके चार अंग माने जाते है- (1) विधायिका (2) कार्यपालिका (3) न्यायपालिका (4) मीडिया जो संवैधानिक रूप से तो अंग नहीं किन्तु माना जाने लगा है। इन चारों का एक दूसरे के साथ चेक-बैलेंस सिस्टम आवश्यक है । यदि एक अंग मजबूत हुआ और दूसरा कमजोर तो अव्यवस्था होगी । साथ ही यह भी विचारणीय है कि चारों का उद्देश्य समाज व्यवस्था को सुरक्षा देना होना चाहिये, गुलाम बनाना नहीं । भारत में विधायिका आवश्यकता से कई गुना अधिक मजबूत है । न्यायपालिका, विधायिका से कमजोर होते हुये भी मजबूती के लिये सक्रिय है। कार्यपालिका अभी कमजोर है जिसे विधायिका और न्यायपालिका ने कुछ दबा कर रखा है। मीडिया स्वयं में बहुत सशक्त है । रूचिका राठौर प्रकरण में विधायिका के कानून का दुरूपयोग होने से ऐसा अन्याय हुआ । न्यायपालिका ने भी दुरूपयोग करते हुये कम सजा दी । कार्यपालिका तो अपराध में लिप्त थी ही क्योकि राठौर उच्च अधिकारी था। प्रश्न उठता है कि हमारे पास और क्या उपाय है ऐसी स्थिति से निपटने का जब कोई पुलिस अधिकारी भी मनमानी करने लगे, जज भी पक्षपात करने लगे और ऐसे अन्यायी को कम सजा देने लगे तब मैं मीडिया से प्रश्न पूछना चाहता हूँ कि समाधान क्या है ? मीडिया ने पिछले चुनावों में जिस तरह राजनेताओं से भारी धन लेकर स्वयं को बेच दिया, उसे ही अब सारे अधिकार दे दिए जाये ? क्या किया जाये ? यदि ऐसे मामलों में कोई और कठोर कानून बना दिया जावे तो उसका कार्यान्वयन तो जज और पुलिस अफसर ही करेगे जिसका अर्थ यह होगा कि उनकी ताकत और ज्यादा बढ़ जायेगी । राठौर ने जो दुरूपयोग किया वह उसे दी गई शक्तियों का दुरूपयोग था । अब आप पुलिस को और कानूनी ताकत बढ़ाने जा रहे है तो उस ताकत का दुरूपयोग रूकेगा कैसे ? विधायिका तो हमेशा ही चाहती है कि समाज नये-नये कानून बनाने की मांग उठाता रहे और उस मांग के आधार पर विधायिका और कानून बना-बना कर समाज को गुलाम बनाती रहे । तो यह समाधान न होकर समस्या का विस्तार मात्र हुआ । गनीमत है कि रूचिका राठौर प्रकरण में मामला बलात्कार का न होकर छेड़छाड़ मात्र का था और हत्या का न होकर आत्महत्या का था और साथ ही हमारे देश की ऐसी लचर व्यवस्था में भी उन्नीस वर्ष बाद छः माह की सजा हो गई अन्यथा राठौर सबूतो के अभाव में निर्दोष छूट भी तो सकता था। बड़ी मात्रा में इससे कई गुना गंभीर अपराधी अपने राजनैतिक, आर्थिक या शासकीय पदों का दुरूपयोग करते हुये न्यायालय से निर्दोष सिद्ध हो भी रहे है और होंगे भी । राठौर मामला कोई अदभुत और विलक्षण मामला नहीं है। तब इस बात की खोज होनी भी आवश्यक है कि इस मामले को इतना उछालनें के पीछे उस टीवी चैनल का क्या उद्देश्य या स्वार्थ था ? स्पष्ट दिखता है कि मामला सिर्फ जनहित तक सीमित न होकर कुछ और हो सकता है।
मीडिया का स्वार्थ चाहे जो भी रहा हो किन्तु ऐसी समस्याओं का समाधान भी खोजना होगा ही । अधिकारों की छीना- झपटी के वातावरण में दिये गये सुझाव वर्तमान अव्यवस्था को बढ़ाने में ही सहायक होंगे इसलिये मेरा समाज से आग्रह है कि वह भावनाओं के उबाल में आकर तिल का ताड़ और ताड़ का तिल बनाने के प्रयत्नों को समझनें की आदत डाले तो ऐसी समस्याओं का समाधान खोजने में सहायता होगी ।
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