संसदीय लोकतंत्र या सहभागी लोकतंत्र
संसदीय लोकतंत्र या सहभागी लोकतंत्र
दुनियां में दो प्रकार की शासन प्रणालियॉ होती है-1. तानाशाही 2. लोकतंत्र। तानाशाही में शासक का संविधान होता है और लोकतंत्र में संविधान का शासन। तानाशाही में गुलामी होती है और लोकतंत्र में स्वतंत्रता। तानाशाही में उच्श्रृंखता शून्य होती है और लोकतंत्र में उच्श्रृंखलता के खतरे बने रहते हैं। तानाशाही में व्यक्ति को कोई मौलिक अधिकार नहीं होता। व्यक्ति राज्य की सम्पत्ति माना जाता है जबकि लोकतंत्र में व्यक्ति को मौलिक अधिकार होता है तथा व्यक्ति राज्य का सहायक माना जाता है। इस्लामिक व्यवस्था में मूलतः तानाशाही ही होती है। साम्यवाद भी एक ग्रुप की तानाशाही माना जाता है। भले ही साम्यवाद ने लोकतंत्र की बढ़ती प्रतिकठा को देखते हुए स्वयं को लोकतांत्रिक समाजवाद कहना शुरु कर दिया, किन्तु साम्यवादी व्यवस्था पूरी तरह तानाशाही ही होती है क्योंकि साम्यवाद में भी व्यक्ति को मौलिक अधिकार नहीं होते तथा व्यक्ति राज्य की सम्पत्ति माना जाता है।
लोकतंत्र भी दो प्रकार का होता है-1. जीवनपद्धति का लोकतंत्र 2. शासन पद्धति का लोकतंत्र। जीवन पद्धति का लोकतंत्र नीचे से उपर की ओर आता है तथा इस लोकतंत्र में परिवार व्यवस्था में भी लोकतंत्र होता है स्थानीय व्यवस्था में तो होता ही है। जबकि आयातित लोकतंत्र में सिर्फ शासन में ही लोकतंत्र होता है, परिवार व्यवस्था में लगभग तानाशाही ही रहती है। जीवन पद्धति के लोकतंत्र में राजनैतिक दलों में भी लोकतंत्र होता है जबकि आयातित लोकतंत्र में राजनैतिक दलों की आंतरिक व्यवस्था में भी तानाशाही ही होती है। पश्चिम के देशों में जीवनपद्धति का लोकतंत्र होता है; तो भारत, पाकिस्तान तथा अन्य दक्षिण एशिया के देशों में आयातित लोकतंत्र है। इन दक्षिण एशिया के देशों में व्यक्ति को मूल अधिकार तो प्राप्त है किन्तु पारिवारिक दलीय अथवा सामाजिक व्यवस्था में लगभग तानाशाही का बोलबाला दिखता है।
पश्चिम के देशों में जीवनपद्धति का लोकतंत्र है किन्तु यह लोकतंत्र भी कई प्रकार का है- 1. अध्यक्षीय प्रणाली 2. संसदीय प्रणाली 3. समाजवादी प्रणाली। आयातित लोकतंत्र अर्थात भारत जैसे देशों में संसदीय प्रणाली ही मुख्य रुप से स्थापित है। आयातित लोकतंत्र वाले देशों में जीवनपद्धति तक लोकतंत्र न आकर शासन पद्धति तक सीमित रहता है इसलिए ऐसे देशों में अव्यवस्था निश्चित होती है। अव्यवस्था जब लम्बे समय तक चलती है तो आम लोग अव्यवस्था से परेशान होकर मुक्ति के लिए तानाशाही की अपेक्षा करते है क्योंकि तानाशाही में कभी अव्यवस्था नहीं होती बल्कि गुलामी होती है। जब तानाशाही लम्बे समय तक चलती है तब आम लोग गुलामी से मुक्ति के लिए संसदीय लोकतंत्र की मांग करते है। यह चक्र आमतौर पर चलता रहता है। भारत में भी 70 वर्षों तक अव्यवस्था झेलने के बाद आम लोगों ने उससे मुक्ति के लिए नरेन्द्र मोदी पर अपना विश्वास व्यक्त किया। स्पकट दिख रहा है कि नरेन्द्र मोदी के आने के बाद भारत में समस्याए बहुत तेजी से सुलझ रही हैं, किन्तु समस्या के सुलझ जाने के बाद सत्ता के केन्द्रियकरण का खतरा पैदा होगा की नहीं यह अभी से नहीं कहा जा सकता। वैसे अभी कुछ दिन पहले ही मोदी जी ने अपने एक भाकाण मे सहभागी लोकतंत्र की बात उठाकर इस आवाज को बहुत आष्वस्त किया है। मुझे व्यक्तिगत रूप से पूरा विश्वास है कि मोदी जी इस दिशा में भी तेज गति से आगे बढेंगे क्योंकि उन्होंने ग्राम सभा सशक्तिकरण की दिशा में भी तेज गति से आगे बढ़ने की पहल की है।
लोकतंत्र चाहे आयातित हो या जीवन पद्धति का किन्तु लोकतंत्र में संविधान का शासन माना जाता है। जहॉ जीवन पद्धति का लोकतंत्र होता है वहॉ संविधान पर आंशिक रुप से समाज का भी हस्तक्षेप होता है। किन्तु जहॉ आयातित लोकतंत्र है वहॉ संविधान का शासन नाम के लिए होता है। बल्कि संविधान पर पूरी तरह तंत्र का ही नियंत्रण होता है। तंत्र के भी तीन भाग होते है- विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका। भारत सरीखे संसदीय लोकतंत्र में चूंकि सम्पूर्ण सत्ता संविधान में निहित होती है तथा संविधान अंतिम रुप से तंत्र के नियंत्रण में रहता है इसके परिणामस्वरुप तंत्र के तीनों ही भाग संविधान पर नियंत्रण के लिए या तो आपस में प्रतिस्पर्धा करते है अथवा टकराव की सीमा तक चले जाते हैं। भारत का संसदीय लोकतंत्र भी इस टकराव से निरंतर दो चार हो रहा है। यहॉ भी न्यायपालिका और विधायिका निरंतर आपस में टकराव के मार्ग पर चल रहे हैं।
व्यक्ति की स्वतंत्रता और उच्श्रृंखलता की सीमाओं के निर्धारण के लिए ही शासन की आवश्यकता होती है। यह शासन तीन प्रकार का होता है- 1. स्वशासन 2. अनुशासन 3. राज्यशासन। स्वशासन सबसे अच्छी व्यवस्था होती है यद्यपि बहुत कम देखने को मिलती है। अनुशासन एक अच्छी व्यवस्था मानी जाती है तथा आमतौर पर लोकतान्त्रिक देशों में दिखती है। शासन एक मजबूरी की व्यवस्था मानी जाती है जो यद्यपि अच्छी नहीं मानी जाती किन्तु इससे मुक्त भी नहीं रहा जा सकता क्योंकि उच्श्रृंखलता पर नियंत्रण के लिए यही मार्ग आवश्यक और सफल होता है। स्वशासन में भय नहीं होता, अनुशासन में आंतरिक व्यवस्था का भय होता है और शासन में तो भय के अतिरिक्त कुछ होता ही नहीं।
संसदीय लोकतंत्र का सिर्फ एक ही विकल्प होता है और वह होता है सहभागी लोकतंत्र। सहभागी लोकतंत्र को ही लोकस्वराज्य भी कहा जाता है। सहभागी लोकतंत्र लोक नियंत्रित तंत्र होता है जबकि संसदीय लोकतंत्र लोक नियुक्त तंत्र होता है। सहभागी लोकतंत्र में संविधान पर समाज का नियंत्रण होता है। समाज तंत्र को संविधान के अन्तर्गत कार्य करने के लिए अपना प्रतिनिधि या मैनेजर नियुक्त करता है। संसदीय लोकतंत्र में
प्रतिनिधि अपने को सरकार कहता भी है और मानता भी है क्योंकि संविधान तंत्र की मुट्ठी में कैद होता है। संसदीय लोकतंत्र में लोक तंत्र को नियुक्त मात्र कर सकता है नियंत्रित नहीं। जबकि सहभागी लोकतंत्र में समाज तंत्र को नियुक्त भी कर सकता है और नियंत्रित भी। सहभागी लोकतंत्र में मूल अधिकार प्रकृति प्रदत्त माने जाते है तथा संविधान या शासन की भूमिका मूल अधिकारों की सुरक्षा की गारण्टी मात्र तक सीमित होती है। जबकि संसदीय लोकतंत्र में संविधान अर्थात तंत्र कभी भी बिना जनता की राय लिये उनमें अर्थात मूल अधिकारों में संशोधन कर सकता है। सहभागी लोकतंत्र में नीचे की इकाई अपने अधिकार स्वयं तय करती है तथा शेका अधिकार उपर की इकाई को देती है जो धीरे-धीरे बहुत कम मात्रा में तंत्र के पास पहॅुचते है। जबकि संसदीय लोकतंत्र में उपर की इकाई नीचे की इकाई को अधिकार देती है तथा जब चाहे वापस ले सकती है। सहभागी लोकतंत्र में सामान्यतया सहजीवन होता है और इसलिए सहजीवन में अधिकारों की छीना झपटी यदाकदा ही होती है। सहभागी लोकतंत्र में आम नागरिक कर्तव्य प्रधान होते है। संसदीय लोकतंत्र में अधिकार प्रमुख होता है तथा आमतौर पर अधिकार संग्रह की प्रवृत्ति होने से कर्तव्य करने की प्रेरणा समाप्त हो जाती है तथा अधिकारों की छीना झपटी चलती रहती है।
मेरे विचार में समस्याओें के समाधान के लिए, तंत्र से जुडी तीन इकाइयो के टकराव से बचने के लिए, सहजीवन को भी व्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान दिलाने के लिए तथा परिवार व्यवस्था, गॉव व्यवस्था, समाज व्यवस्था को सशक्त करने के लिए सहभागी लोकतंत्र ही एकमात्र मार्ग है। मैं जानता हॅू कि अब तक दुनियां में सहभागी लोकतंत्र पूरी तरह किसी भी दे में नहीं आया है किन्तु मैं यह भी जानता हॅू कि यही एकमात्र आदर्श प्रणाली है। इस आदर्श प्रणाली की शुरुवात भारत से की जा सकती है। क्योंकि भारत ऐसे देशों में प्रमुख स्थान रखता है जहॉ परिवार व्यवस्था, गॉव व्यवस्था, सहजीवन आमतौर पर मान्य परम्पराए बनी हुई है।
मैं जानता हॅू कि अनेक विकृतियों के कारण तथा गुलामी के कारण भारत के सहभागी लोकतंत्र में बहुत अधिक टूटफूट हुई है किन्तु भारत दुनियां का अकेला ऐसा देश है जहॉ से सहभागी लोकतंत्र की आवाज़े पहले भी उठती रही है तथा वर्तमान में भी उठ रही हैं। सहभागी लोकतंत्र के लिए भारत को तत्काल कोई बड़ा परिवर्तन न करके छोटे-छोटे परिवर्तन करने होंगे-
- परिवारव्यवस्था तथा ग्राम व्यवस्था को संवैधानिक मान्यता दिलानी होगी अर्थात तंत्र परिवार, गॉव, जिले, की आंतरिक व्यवस्था में बिना उनकी सहमति के कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकेगा।
- संविधानसंशोधन के तंत्र के पास असीमित अधिकारों में किसी न किसी रुप में लोक का हस्तक्षेप बढ़ाना होगा।
यदि लोक के पास संविधान संशोधन के सारे अधिकार चले जाये तो अधिक अच्छा होगा जिसका अर्थ हुआ कि संविधान संशोधन के किसी भी प्रस्ताव पर जनमत संग्रह आवश्यक होगा। यदि ऐसा करना कठिन दिखे तो कोई
ऐसी व्यवस्था करनी होगी जो तंत्र के संविधान संशोधन के असीमित अधिकारों को सीमित कर सके। 3. निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को कभी भी वापस बुलाने की कोई न कोई व्यवस्था अवश्य होनी चाहिए।
- वर्तमानव्यवस्था पर बुद्धिजीवियों का एकाधिकार होने से श्रम और बुद्धि के बीच सुविधाओं का अंतर बढ़ता जा रहा है। श्रमजीवी अपना श्रम बुद्धिजीवियों के पास उनकी शर्तों पर बेचने के लिए मजबूर हो रहे है। किसी व्यवस्था
द्वारा श्रम और बुद्धि के बीच सुविधा, सम्मान और वेतन की बढ़ती हुई दूरी को कम करना ही चाहिए।
यदि इन चार पर भी काम शुरु हुआ तो भारत संसदीय लोकतंत्र के स्थान पर सहभागी लोकतंत्र की ओर तेज गति से बढ़ना शुरु कर देगा और हमारी गति से प्राप्त सफलता सारी दुनियां का मार्ग दर्शन कर सकेगी।
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