ईश्वर यथार्थ नहीं है लेकिन हमारी एक आवश्यकता है।

ईश्वर यथार्थ नहीं है लेकिन हमारी एक आवश्यकता है।

मेरे एक मित्र महेंद्र नेह जी हैं जो गंभीर हैं और विचारों से कम्युनिस्ट है। उन्होंने लिखा है कि हमारे शास्त्रों ने समाज को बहुत गुमराह किया है। यह बात आंशिक रूप से सत्य है लेकिन इसका समाधान खोजना पड़ेगा। साम्यवादियों द्वारा बताया गया समाधान पूरी तरह गलत है। वह तो समाज को और अधिक गुमराह करने वाला है क्योंकि साम्यवादी विकल्प तो देते नहीं। वह सत्ता के केंद्रीकरण के लिए समाज, धर्म, परिवार सबको कमजोर करना चाहते हैं। मैं इससे सहमत नहीं हूँ। मैं भी यह बात तो समझता हूँ कि ईश्वर यथार्थ नहीं है लेकिन हमारी एक आवश्यकता है। ईश्वर को समाज से बाहर करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है लेकिन साम्यवाद ईश्वर को तो बाहर कर रहा है लेकिन उसका विकल्प नहीं दे पा रहा। मार्क्स ने इस संबंध में सोचा था कि स्टेट अर्थात राज्य ईश्वर के रूप में स्थापित हो सकेगा किंतु वह नहीं हुआ और स्टेट स्वयं में ईश्वर बनने लगा, जो उचित नहीं था। राज्य को एक दृश्य शक्ति के रूप में नहीं बल्कि एक अदृश्य भय तक ही सीमित रहना चाहिए था। इसलिए मेरा यह निवेदन है कि शास्त्रों को गलत कहने की अपेक्षा उसके स्थान पर कोई विकल्प देना ज्यादा अच्छा रहेगा।