ज़ूम चर्चा कार्यक्रम: GT-440
ज़ूम चर्चा कार्यक्रम:
ध्रुवीकरण प्रवृत्तियों के आधार पर होना चाहिए:
कुछ दिन पहले ’जूम एप’ पर चर्चा हुई कि ध्रुवीकरण प्रवृत्तियों के आधार पर होना चाहिए जन्म के आधार पर नहीं। कोई व्यक्ति यदि दुष्ट प्रवृत्ति का होगा तो वह चाहे किसी भी जाति का हो, किसी भी वर्ण का हो उसे अपराधी माना जाना चाहिए। जो व्यक्ति अच्छी प्रवृत्ति का होगा उसे हमेशा प्रशंसा भी मिलनी चाहिए, मदद भी मिलनी चाहिए। पुराने जमाने में अच्छे और बुरे के बीच ही संघर्ष चलता था जिसे देवासुर संग्राम कहा जाता था। लेकिन वर्तमान समय में प्रवृत्ति के आधार पर ध्रुवीकरण न होकर जाति या धर्म के आधार पर हो रहा है। हिंदू और मुसलमान, आदिवासी और गैर आदिवासी, महिला और पुरुष के नाम पर जो संगठन बना रहे हैं यह संगठन अपराधियों को अपने साथ जोड़ लेते हैं जो अपराध वृद्धि में सहायक हैं। चर्चा में यह बात साफ हुई कि किसी भी प्रकार के संगठन यदि बना रहे हैं तो वह अपराध में सहायक हो रहे हैं क्योंकि संगठन प्रवृत्ति के आधार पर नहीं बन रहे हैं। इसलिए अब हमें इस बात को अधिक महत्वपूर्ण मानना चाहिए कि संगठन प्रवृत्ति के आधार पर बने। अच्छे और बुरे के बीच बंटवारा, जाति, धर्म, महिला, पुरुष, आदिवासी, गैर आदिवासी इस प्रकार के भेद समाप्त कर दिए जाएं। दुख की बात यह है कि हमारे वर्तमान राजनेता दिन-रात झूठ बोल रहे हैं, भ्रष्टाचार कर रहे हैं और जाति की दुहाई दे रहे हैं। कोई अपने को पिछड़ी जाति का कहता है तो कोई अपने को दलित वर्ग का घोषित करता है तो कोई अपने को महिला होने के नाम पर योग्यता बता रहा है। लेकिन सच बात यह है कि यह सब दलित, महिला, आदिवासी पिछड़ा यह सब वास्तव में भ्रष्टाचार को ढकने का माध्यम मात्र है और कुछ नहीं।
वर्तमान भारतीय संस्कृति में बौद्ध, इस्लाम, ईसाईयत और साम्यवाद की खिचड़ी:
कुछ दिन पहले ’जूम एप’ पर रामानुजगंज कार्यालय से चर्चा हुई कि हिंदू संस्कृति और भारतीय संस्कृति में क्या फर्क है। बताया गया कि हिंदू संस्कृति सर्वधर्म समभाव, वसुधैव कुटुंबकम जैसे महत्वपूर्ण विचारों के आधार पर कार्य करती है और वर्तमान भारतीय संस्कृति में दो बातें महत्वपूर्ण हो गई है पहली कमजोर को दबाओ और मजबूत से दबो। दूसरी मेहनत बहुत कम करो और अधिक से अधिक परिणाम के प्रयत्न करो। यह दो दुर्गुण वर्तमान समय में भारतीय संस्कृति में प्रवेश कर गए हैं जो हिंदू संस्कृति में नहीं थे। बुद्ध धर्म के पहले जो हमारी संस्कृति थी वह हिंदू संस्कृति थी। बुद्ध इस्लाम, ईसाईयत और साम्यवाद को मिलाकर जो खिचड़ी संस्कृति बनी वह संस्कृति आज हम देख रहे हैं और इसे हम भारतीय संस्कृति कह सकते हैं हिंदू संस्कृति नहीं। यद्यपि इस भारतीय संस्कृति में हिंदू संस्कृति भी मिली हुई है। एक मित्र ने यह प्रश्न भी उठाया कि बुद्ध के पहले ही हमारे हिंदू संस्कृति में जातिवाद, छुआछूत जैसी बुराइयां घर कर गई थी। वर्ण और जाति व्यवस्था योग्यता और कर्म के आधार पर न होकर जन्म के आधार पर हो गई थी। इन बुराइयों का बहुत दुष्परिणाम हुआ। इस बात पर सब लोगों ने सहमति व्यक्त की कि हिंदू संस्कृति में अनेक अच्छाइयां होते हुए भी कुछ बुराइयां प्रवेश कर गई थी और उन बुराइयों का भी प्रभाव हिंदू संस्कृति पर पड़ रहा था। लेकिन जो बाद में संस्कृति बनी वह तो पूरी की पूरी ही गड़बड़ हो गई। वर्तमान भारतीय संस्कृति में अच्छाइयां बहुत कम है और बुराइयां अधिक हैं।
समझदारी से आती है सही निर्णय की बुद्धि:
कुछ दिन पहले ’जूम एप’ पर रामानुजगंज कार्यालय से चर्चा हुयी कि यदि कहीं आग लग गई है तो हमें पहले आग बुझाना चाहिए या अपना घर बचाना चाहिए। इसका निर्णय ऑन द स्पॉट जो व्यक्ति रहता है वही कर सकता है क्योंकि यदि आग भयंकर लगी हुई है तो घर बचाना चाहिए अगर आग बहुत कम है तो आग को बुझाना चाहिए यह निर्णय वहां रहने वाला व्यक्ति ही कर सकता है। वर्तमान समय में आम लोगों की समझदारी घट जाने के कारण इस प्रकार के निर्णय होने में गलतियां हो जा रही हैं। चालाक लोग सिर्फ अपना घर बचाना चाहते हैं और शरीफ लोग, भावना प्रधान लोग सिर्फ आग बुझाने को प्राथमिकता देते हैं। जबकि दोनों ही मार्ग स्थिति अनुसार गलत है। यदि हम वर्तमान समय का आकलन करें तो वर्तमान समय में समाज में भी अनेक प्रकार की कुरीतियां बढ़ रही हैं। दूसरी ओर राज्य समाज को गुलाम बनाता जा रहा है। ऐसी स्थिति में हमें सामाजिक बुराइयां दूर करनी चाहिए या राज्य की ताकत से मुक्ति का कोई मार्ग खोजने चाहिए, यह महत्वपूर्ण विषय है। चर्चा में यह बात सामने आई कि जो लोग अपने को शरीफ समझते हैं, कमजोर मानते हैं वह सामाजिक बुराइयां दूर करने में लगा सकते हैं। लेकिन जो लोग समझदार हैं जो लोग थोड़ा सा मजबूत है सक्षम है उन्हें राज्य की शक्ति को कम करने का प्रयास करना चाहिए यही हमारी समझदारी होगी। राज्य हमेशा चाहता है कि हम सामाजिक बुराइयों को दूर करने की कोशिश करें लेकिन हमें राज्य की इस सलाह से बचना चाहिए। सामाजिक बुराइयां तो हम लोग बाद में भी दूर कर लेंगे लेकिन राज्य की गुलामी अधिक खतरनाक है।
परिवार व्यवस्था जैसे आन्तरिक मामलों में राज्य का अनुचित हस्तक्षेप ।
कुछ दिन पहले ’जूम एप’ पर रामानुजगंज कार्यालय से चर्चा हुयी कि महिला और पुरुष के बीच व्यक्तिगत संबंधों को अनुशासित करने के लिए विवाह प्रणाली बनी थी। विवाह प्रणाली को परिवार व्यवस्था और समाज व्यवस्था के द्वारा अनुशासित किया जाता था। जब तक बलात्कार न हो तब तक राज्य किसी प्रकार का कोई दखल नहीं देता था। लेकिन अब इस आंतरिक मामले में राज्य ने हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया। विवाह के मामले में भी राज्य दखल देने लगा। परिवार व्यवस्था को कमजोर कर दिया गया। समाज व्यवस्था का सारा काम राज्य ने अपने ऊपर संभाल लिया। राज्य का दायित्व था कि बलात्कार और हत्याएं रोकना लेकिन राज्य तो विवाह प्रणाली में हस्तक्षेप करने लग गया, परिवार की आंतरिक व्यवस्था में दखल देने लगा और इसका यह परिणाम हुआ कि आज समाज में बलात्कार और हत्याएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। महिला और पुरुष के बीच में लगातार कटुता बढ़ रही है। जो काम समाज और परिवार को करना चाहिए था उस कार्य से परिवार और समाज को बाहर करके राज्य का हस्तक्षेप बढ़ते जाना इस समस्या का मुख्य कारण है। आप बलात्कारों को सिर्फ फांसी देकर नहीं रोक सकते बलात्कारों को रोकने के लिए आपको सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था पर भी चिंतन करना पड़ेगा। लेकिन राज्य परिवार और व्यवस्था को पूरी तरह समाप्त कर रहे हैं। इसलिए मेरा यह सुझाव है कि बलात्कारों को रोकने के लिए परिवार व्यवस्था और समाज व्यवस्था को भी शामिल करने की जरूरत है। राज्य व्यवस्था इस समस्या का समाधान नहीं कर सकेगी बल्कि यह समस्या और बढ़ती चली जाएगी।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुधारने में युवाओं के पहल की जरूरत।
कुछ दिन पहले ’जूम एप’ पर रामानुजगंज कार्यालय से ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर चर्चा हुयी। जिसमे देश के अलग-अलग हिस्सों में रहने वाले विद्वानों ने भाग लिया। नगरों को तमाम ऐसी सुविधाएं जो शासन उपलब्ध कराता है इसके अलावा एक घनी आबादी होने के अलग राजनैतिक एवं आर्थिक लाभ होते हैं। राज्य के द्वारा इनका पोषण ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बिगाड़ कर करना उचित नहीं। नगरों में सस्ता पानी सस्ती बिजली आदि उपलब्ध कराने के शासकीय प्रयासों ने ग्रामीण क्षेत्रों के विकसित होने के अवसर ही समाप्त कर दिए। एक तो पहले ही बढ़ती जनसंख्या प्राकृतिक पारिस्थितिकी ने पहले ही कृषि पर निर्भर ग्राम्य जीवन को दुरूह बना रखा है। दूसरे नगरों के प्रदूषण को बचाने और उन्हें ठीक जलवायु उपलब्ध कराने की दुरूह जिम्मेदारी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था ने थोप रखी है यह उचित नहीं। खेती लाभप्रद व्यवसाय बने इसके लिए युवाओं को कृषि से जोड़ने के उपायों पर भी चिंतन करना चाहिए, यह भी विद्वानों का मत था।
समाज के कार्यों में राजकीय हस्तक्षेप सबसे बड़ी समस्या:
कल रात 8 बजे रामानुजगंज कार्यालय से जूम पर इस महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा हुई कि राज्य और समाज के दायित्व किस प्रकार बंटे हुए हैं। व्यवस्था दो प्रकार की होती है सामाजिक और शासकीय। शासन का काम होता है सुरक्षा और न्याय, समाज का काम होता है अहिंसा और सत्य की सुरक्षा। शासन के लिए अहिंसा और सत्य मार्ग होता है लक्ष्य नहीं। लक्ष्य तो सिर्फ सुरक्षा और न्याय होता है। स्पष्ट है कि राज्य को सुरक्षा और न्याय के लिए हिंसा और असत्य का सहारा लेने की छूट है। दूसरी ओर समाज के लिए यह आवश्यक है कि वह अपराधियों का हृदय परिवर्तन करें। समाज अपराधियों की दंड नहीं दे सकता और राज्य अपराधियों का हृदय परिवर्तन नहीं कर सकता। दोनों के तरीके अलग-अलग हैं। वर्तमान समय में राज्य हृदय परिवर्तन के प्रयत्न कर रहा है और समाज अपराधियों को सीधा दंड देने की कोशिश कर रहा है यह पूरी तरह गलत है। इस गलती में सबसे अधिक दोषी राज्य है जिसने समाज के सारे कार्य अपने पास समेट लिए। इसलिए राज्य को इस संबंध में पहल करनी चाहिए अन्यथा समाज में और अधिक हिंसा बढ़ सकती है। चर्चा करीब 1 घंटे चली। जिसमें देश के चुने हुए 12 विद्वानों ने भाग लिया।
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