विविध विषयों पर GT-443
सीटों के बंटवारे में फंसी INDI गठबंधन:
भारतीय जनता पार्टी पूरे देश भर में जोर-जोर से प्रचार में लगी हुई है वही इंडिया गठबंधन अब तक सीटों का बंटवारा भी नहीं कर सका है। आज उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी और सपा के बीच जो सीटों का बंटवारा हुआ उसमें दोनों पक्षों की प्रसन्नता देखकर ऐसा महसूस होता हो जैसे कांग्रेस पार्टी 17 और अखिलेश यादव 62 सीटों पर चुनाव जीत गए हो। जिस राजनीतिक दल में सीटों के बंटवारे पर ही इतनी खुशी दिख रही है वे लोग क्या भविष्य में चुनाव लड़ पाएंगे इस पर बहुत संदेह होता है। नीतीश कुमार ने बहुत अच्छा किया जो इनका साथ छोड़ दिया क्योंकि यह तो सिर्फ सीटों के बंटवारे को ही अंतिम चुनाव मानकर चल रहे हैं। मेरे विचार से इंडिया गठबंधन का भविष्य बहुत ही अंधेरे में जा रहा है।
बुरे काम का बुरा नतीजा - सतपाल मलिक:
लंबे समय से महसूस किया जा रहा था कि सतपाल मलिक एक बहुत ही चालाक आदमी है। उन्होंने जीवन में बहुतों को धोखा दिया। सभी राजनीतिक दलों को उन्होंने अंगूठा दिखाया लेकिन बहुत चालाक आदमी भी जीवन के अंतिम समय में समाज के सामने साफ साफ दिख ही जाता है। अब सतपाल मलिक भी सामने दिख रहे हैं। दुनिया को पता चल गया है कि यह आदमी कितना धूर्त था। कल सतपाल मलिक के यहाँ जो छापा पड़ा उस छापे से मलिक की बोलती बंद हो गई है। सतपाल मलिक भी अन्य राजनेताओं की तरह एक ही बात की रट लगा रहे हैं की मैं किसी से डरने वाला नहीं हूं। सच बात तो यह है कि नंगा आदमी किसी से नहीं डरता। मुझे तो यह साफ दिखता है कि आगे चलकर के सतपाल मलिक का बुढ़ापा कहीं कारागार में ही ना कटे। अच्छा है इस प्रकार के चालाक लोगों को सबक मिलना ही चाहिए।
सावरकर गद्दार नहीं थे:
कल मेरे एक साम्यवादी मित्र में मुझे सावरकरवादी घोषित कर दिया तो दूसरी ओर मेरे एक सावरकरवादी मित्र ने मुझे कम्युनिस्ट घोषित कर दिया। सच्चाई यह है कि मैं इन दोनों में से कोई भी नहीं हूं। मैं गांधी को मानने वाला हूं जो ना कभी-इस्लाम समर्थक रहे और ना कभी उग्र हिंदुत्व के समर्थक। मैं सावरकर का इस लिए सम्मान करता हूं कि सावरकर ने स्वतंत्रता की लड़ाई में अपने जेल के पूर्व के जीवन का बहुत ही अच्छा उदाहरण प्रस्तुत किया इस लिए हम उनके त्याग और तपस्या को सलाम करते हैं। जेल जीवन के बाद उन्होंने परेशान होकर अंग्रेजों से समझौता किया और उस समझौते का ईमानदारी से पालन किया। सावरकर के जीवन को भीष्म पितामह तो कहा जा सकता है किंतु गद्दार नहीं कहा जा सकता क्योंकि सावरकर हिंदुत्व के पक्षधर थे लेकिन वह हिंदुत्व की सुरक्षा इस्लामिक तरीके से करना चाहते थे। वे हिंसा के पक्षधर थे और गांधी हिंदुत्व की सुरक्षा हिंदुत्व के तरीके से करना चाहते थे। तरीका अलग-अलग थे लेकिन लक्ष्य एक था। यदि सावरकर की तुलना साम्यवादियों से की जाए तो सावरकर साम्यवादियों की तुलना में कई गुना अच्छे थे क्योंकि सावरकर क्रांतिकारी थे स्वतंत्रता सेनानी थे साम्यवादी नहीं। यदि सावरकर की तुलना गांधी के साथ की जाए तो गांधी सावरकर की तुलना में कई गुना अच्छे थे क्योंकि गांधी बुद्धि से स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ना चाहते थे सावरकर भावना से लड़ना चाहते थे दोनों के मार्ग अलग-अलग थे गांधी का मार्ग सफल हुआ सावरकर का मार्ग असफल हुआ। इसलिए मेरे विचार से अब सावरकर प्रकरण को यहीं समाप्त कर देना चाहिए क्योंकि सावरकर गांधी की तुलना में कमजोर और कम्युनिस्टों की तुलना में बहुत ऊंचे माने जाते हैं। गांधी सर्वश्रेष्ठ सफल स्वतंत्रता सेनानी रहे हैं सावरकर असफल स्वतंत्रता सेनानी रहे हैं दोनों में इतना ही फर्क है।
हिन्दू मुसलमान के विवाद का लोकतांत्रिक समाधान हो:
गांधी एकमात्र ऐसे व्यक्ति रहे हैं जिन्हें समाजशास्त्र का भी बहुत अच्छा ज्ञान था और राजनीति शास्त्र का भी। जब भारत गुलाम था तब यह गांधी की दूरदर्शिता ही थी कि उन्होंने हिंदू मुस्लिम एकता का नारा देकर अंग्रेज सरकार को दुश्मन नंबर एक घोषित किया। जब खिलाफत आंदोलन शुरू हुआ और तुर्की के कट्टरपंथी मुसलमानों ने ब्रिटेन समर्थक कमालपाशा के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। तब गांधी की दूरदर्शिता ही थी कि उन्होंने भारत में भी खिलाफत आंदोलन का समर्थन किया। भारत में अनेक ऐसे लोग थे जो स्वतंत्रता के पूर्व भी अंग्रेज सत्ता की तुलना में मुसलमानों को अधिक खतरनाक मानते थे। ऐसे लोगों ने उस समय खिलाफत आंदोलन का विरोध किया था जो अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेज़ सरकार को खुश करने वाला था लेकिन भारत के अधिकांश हिंदुओं ने गांधी का साथ दिया। गांधी का मानना था कि अंग्रेजों के जाने के बाद हम हिंदू मुसलमान का विवाद लोकतांत्रिक तरीके से निपट लेंगे क्योंकि हिंदुओं की संख्या अस्सी प्रतिशत है और मुसलमान की जनसंख्या 20 प्रतिशत। मुट्ठी भर अंग्रेजों के दलाल हिंदू स्वतंत्रता की तुलना में हिंदू मुसलमान समस्या को पहले निपटाना चाहते थे जो पूरी तरह गलत कदम था। नरेंद्र मोदी और मोहन भागवत ने भले ही देर से गांधी को समझा हो लेकिन दोनों ने यह बात अच्छी तरह समझ ली है कि गांधी का मार्ग ही वास्तविक हिंदुत्व है और गांधी का मार्ग वास्तविक समाज व्यवस्था है। आज भी कट्टरपंथी हिंदू और कट्टरपंथी मुसलमान नरेंद्र मोदी और मोहन भागवत का विरोध इसलिए करते हैं कि यह दोनों गांधी मार्ग पर चल रहे हैं। मैं बचपन से ही इस बात को अच्छी तरह समझ रहा था कि गांधी मार्ग ही हिंदुत्व का सबसे अच्छा मार्ग है। इसलिए हम लोगों की संस्था ज्ञान यज्ञ परिवार भी वैचारिक संतुलनवादी हिंदुत्व की प्रयोगशाला के रूप में लगातार सक्रिय है।
आगामी नए सरकार की घोषणाएं लोकहितकारी:
मैं नरेंद्र मोदी से जिस गति की अपेक्षा कर रहा था उसकी तुलना में वे कई गुना अधिक तेज गति से आगे बढ़ रहे हैं। मैं समझता था कि 2029 के बाद भारत में विपक्ष खत्म हो जाएगा लेकिन अब तो 2024 में ही ऐसी संभावना दिखने लगी है। एक तरफ तो नरेंद्र मोदी और अमित शाह पूरे आत्मविश्वास से आगे बढ़ रहे हैं तो दूसरी ओर राहुल गांधी का आत्मविश्वास टूटता जा रहा है। भारत की राजनीति एक पक्षीय दिशा में आगे बढ़ रही है यह हमारे लिए शुभ लक्षण है। कल नरेंद्र मोदी ने बड़े आत्मविश्वास के साथ यह घोषणा की कि भारत में सरकार को सिर्फ कमजोरों की मदद तक सीमित रहना चाहिए, आम लोगों के दैनिक क्रियाकलाप में सरकार को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। कल ही टीवी चैनल 9 में अमित शाह ने भी कुछ घोषणाएं की। उन्होंने यह बताया कि भारत में इन चुनाव के पूरा होने के बाद समान नागरिक संहिता लागू कर दी जाएगी। अमित शाह जी ने यह भी बताया कि इन चुनाव के बाद अगले चुनाव एक भारत एक चुनाव के आधार पर होंगे। अमित शाह ने यह भी कहा कि अगले 3 वर्षों में भारत नक्सलवाद से पूरी तरह मुक्त हो जाएगा। वास्तव में यह तीनों ही बड़ी-बड़ी घोषणाएं हैं। नरेंद्र मोदी ने भी जो घोषणा की है वह कोई साधारण घोषणा नहीं है। मैं नरेंद्र मोदी और अमित शाह को इस बात के लिए बधाई देता हूं कि वह 70 वर्षों की सड़ी-गली बीमारी से देश को मुक्त करने जा रहे हैं। मेरी शुभकामनाएं उनके साथ हैं।
व्यक्ति की असीम स्वतंत्रता का बाधा रहित मिलना ही न्याय है:
पिछली रात 8:00 बजे मार्गदर्शन संस्थान द्वारा आयोजित चर्चा कार्यक्रम में शामिल हुआ। चर्चा का विषय था न्याय और व्यवस्था। न्याय और व्यवस्था को लगभग एक साथ जोड़ दिया जाता है जबकि दोनों ही तंत्र के साथ तो जुड़े हुए हैं लेकिन दोनों का कार्य अलग-अलग होता है और दोनों की परिभाषाएं भी अलग-अलग होती हैं। किसी भी व्यक्ति की असीम स्वतंत्रता का बाधा रहित मिलना यह न्याय है और उस बाधा को दूर करने की गारंटी देना व्यवस्था है। लोकतंत्र में न्यायपालिका न्याय को परिभाषित करती है और कार्यपालिका तथा विधायिका उसमें आने वाली बाधाआंे को दूर करने का प्रयत्न करती हैं। इस तरह इन दोनों की भूमिका अलग-अलग है लेकिन एक दूसरे की पूरक है क्योंकि न्याय और व्यवस्था दोनों मिलकर ही व्यक्ति की असीम स्वतंत्रता की सुरक्षा करती हैं। इस तरह यह माना गया है कि तंत्र का दायित्व सुरक्षा और न्याय तक सीमित है सुरक्षा और न्याय के अतिरिक्त जितने भी कार्य हैं वे सब तंत्र के स्वैच्छिक कर्तव्य हैं दायित्व नहीं। इस विषय पर एक घंटे तक काफी चर्चा हुई चर्चा में प्रश्न उत्तर भी हुआ और चर्चा में शामिल सब लोगों का ज्ञानवर्धन भी हुआ। न्याय और व्यवस्था को परिभाषित करना बहुत जटिल कार्य होते हुए भी सफलतापूर्वक इस विषय पर चर्चा आयोजित की गई।
Comments