झूठ और मांगने की बढ़ती प्रवृत्ति: एक सामाजिक चुनौती और समाधान के उपाय
झूठ और मांगने की बढ़ती प्रवृत्ति: एक सामाजिक चुनौती और समाधान के उपाय
वर्तमान समाज में झूठ बोलने की प्रवृत्ति एक गंभीर समस्या बन चुकी है। स्वतंत्रता के शुरुआती वर्षों में भारत में झूठ बोलने वालों की संख्या न्यून थी। उस समय न्यायालयों में भी लगभग आधे लोग ही झूठ बोलते थे, और सामान्य समाज में तो यह प्रवृत्ति लगभग नगण्य थी। इसीलिए हमारी संवैधानिक व्यवस्था में यह मान्यता थी कि थाने में दर्ज शिकायत को प्रथम दृष्टया सत्य माना जाए। यह विश्वास भी प्रबल था कि सामान्यतः लोग झूठ नहीं बोलते, और यदि कोई कुछ कहता है, तो उसे झूठा सिद्ध करना व्यवस्था का दायित्व है। विशेष रूप से महिलाओं के खिलाफ यौन अपराधों के मामलों में उनकी शिकायतों को अत्यंत विश्वसनीय माना जाता था।
हालाँकि, आज परिस्थितियाँ पूरी तरह बदल चुकी हैं। अब न्यायालयों में सत्य कथन दुर्लभ हो गए हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के अशिक्षित और गरीब लोग ही कभी-कभी सत्य बोलते हैं, वह भी अपवादस्वरूप। सामाजिक स्तर पर भी लगभग 70% लोग झूठ बोलने लगे हैं, और धार्मिक मामलों में भी 30-40% लोग सत्य से विमुख हो रहे हैं। इस बदली हुई स्थिति को देखते हुए संवैधानिक व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता है। अब थाने में दर्ज शिकायत को स्वतः सत्य मानने के बजाय झूठ मानकर उसकी जाँच की जानी चाहिए। गवाही को भी सत्य मानने की बजाय संदेह के दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए। संदिग्ध व्यक्तियों के कथनों का सत्यापन अनिवार्य किया जाए, और उन्हें अपने दावों को सिद्ध करने के लिए बाध्य किया जाए। साथ ही, न्यायालय में झूठ बोलने वालों के लिए कठोर दंड का प्रावधान हो, जबकि सत्य बोलने वालों को अपराध की स्थिति में कम सजा दी जाए। इससे झूठ को हतोत्साहित और सत्य को प्रोत्साहित किया जा सकता है।
राजनीतिक और संवैधानिक व्यवस्था भी झूठ को अप्रत्यक्ष रूप से बढ़ावा दे रही है। अब तक सत्य को प्रोत्साहन का दायित्व केवल धर्म और समाज पर था, किंतु अब व्यवस्था को भी इस दिशा में सक्रिय होना चाहिए। सत्यनिष्ठा को सामाजिक मूल्य के रूप में स्थापित करना आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है।
मांगने की बढ़ती प्रवृत्ति और दान का दुरुपयोग
झूठ के साथ-साथ मांगने की आदत भी एक सामाजिक बुराई बनती जा रही है। हमारी दान देने की उदार परंपरा का खुलकर दुरुपयोग हो रहा है। मांगना अब एक व्यवसाय बन चुका है। दान देने वालों की संख्या और संसाधन सीमित हैं, जबकि मांगने वालों की संख्या और माँगें असीमित होती जा रही हैं। इससे दानदाता ठगा हुआ महसूस करते हैं, और मांगने वाले अपनी चालाकी का प्रचार करते हैं। जिन्हें वास्तव में आवश्यकता है, वे पीछे रह जाते हैं, जबकि धूर्त और नाटकीय लोग अपनी मांगने की कला से लाभ उठा रहे हैं।
पहले भी मांगने की प्रवृत्ति का दुरुपयोग होता था, किंतु वह सीमित था। आज मांगना एक कला बन चुका है, जिसे पहचानना और रोकना एक बड़ी चुनौती है। यदि इसे रोकने के प्रयास में दान देने की प्रवृत्ति को हतोत्साहित किया गया, तो इसका नुकसान होगा। वहीं, यदि इसे अनियंत्रित छोड़ दिया गया, तो दान देने की भावना धीरे-धीरे क्षीण हो जाएगी, और मांगने वालों की संख्या बढ़ती जाएगी।
मैंने अपने जीवन में मांगने वालों को प्रोत्साहित न करने का सजग प्रयास किया। चंदा देने से परहेज किया और दान देते समय भी सावधानी बरती। फिर भी, मांगने वालों की संख्या निरंतर बढ़ रही है। बिना माँगे देना उचित नहीं, और माँगने के बाद देना एक बड़ी सामाजिक बुराई है। चंदा माँगना तो एक अप्रत्यक्ष धंधा बन गया है, और दान का भी व्यापक दुरुपयोग हो रहा है।
समाधान की दिशा
इन दोनों समस्याओं—झूठ और मांगने की प्रवृत्ति—का समाधान खोजने के लिए गंभीर चिंतन और सामूहिक प्रयास आवश्यक हैं। समाज के जिम्मेदार और विचारशील लोगों को एक मंच पर आकर इन मुद्दों पर विचार-विमर्श करना चाहिए। संवैधानिक और कानूनी सुधारों के साथ-साथ सामाजिक जागरूकता अभियान चलाए जाएँ। सत्यनिष्ठा और दान की पवित्रता को पुनर्स्थापित करने के लिए शिक्षा, संस्कार, और व्यवस्था को मिलकर कार्य करना होगा। तभी हम एक सत्यनिष्ठ और उदार समाज का निर्माण कर सकेंगे।
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