आपातकाल पर अंतिम विचार: सुशासन और नीयत का प्रश्न
आपातकाल पर अंतिम विचार: सुशासन और नीयत का प्रश्न
- हमने पिछले दो दिनों से आपातकाल की पृष्ठभूमि, स्वरूप और प्रभावों पर चर्चा की है। आज इस विमर्श का समापन करते हुए यह कहना उचित होगा कि भारत की राजनीति दो प्रमुख गुटों में बंटी हुई है—एक ओर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए), और दूसरी ओर संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए)। एनडीए के समर्थक इंदिरा गांधी के शासनकाल के दौरान लागू आपातकाल की तीव्र आलोचना करते हैं, जबकि यूपीए के पक्षधर नरेंद्र मोदी के शासन को एक अघोषित आपातकाल की संज्ञा देते हैं
- मेरे विचार में दोनों ही पक्षों के तर्कों में कुछ न कुछ सच्चाई अवश्य है। यदि हम ऐतिहासिक दृष्टि से देखें, तो नेहरू काल से लेकर 1991 तक का लंबा समय—विशेषकर 1975-77 को छोड़कर—अघोषित आपातकाल के अंतर्गत ही व्यतीत हुआ। अंतर केवल इतना है कि घोषित आपातकाल में संविधान और न्यायपालिका दोनों स्पष्ट रूप से नियंत्रण में होते हैं, जबकि अघोषित आपातकाल में यह नियंत्रण छाया की तरह होता है—न दिखाई देता है और न स्वीकार किया जाता है।
इसके बावजूद मेरा यह मानना है कि सुशासन के लिए एक प्रकार की ‘आपात व्यवस्था’ कभी-कभी आवश्यक हो सकती है, बशर्ते वह अच्छी नीयत से की गई हो, न कि राजनीतिक स्वार्थ या दमन की भावना से।
यदि हम विपक्ष की इस बात को स्वीकार कर लें कि वर्तमान समय में देश में अघोषित आपातकाल जैसी स्थिति है, तो हमें यह मूल्यांकन करना होगा कि नेहरू से लेकर 1991 तक की स्थितियाँ किस नीयत से थीं—अच्छी या बुरी? और आज जो परिस्थितियाँ हैं, उनकी नीयत क्या है?
लोकतंत्र की आत्मा न्यायपालिका में निहित होती है। यदि न्यायपालिका स्वतंत्र और प्रभावी है, तो शासन भी संतुलित रहता है। परंतु जब न्यायपालिका अघोषित रूप से कमजोर कर दी जाती है, तब शासन मनमानी की ओर बढ़ता है।
वर्तमान शासन के संदर्भ में यदि हम उत्तर प्रदेश के माफियाओं के विरुद्ध कार्रवाई, छत्तीसगढ़ में नक्सलियों पर नियंत्रण, और कश्मीर में आतंकवादियों के दमन को देखें, तो यह प्रतीत होता है कि शासन की नीयत बुरी नहीं, बल्कि सुरक्षा और स्थायित्व की दिशा में है।
इसलिए, यह प्रश्न गौण हो जाता है कि आपातकाल अच्छा है या बुरा। मुख्य प्रश्न यह है कि क्या आपातकाल का प्रयोग अच्छी नीयत से किया जा रहा है या बुरी नीयत से?
फिर भी, यह स्वीकार करना आवश्यक है कि किसी भी स्थिति में आपातकाल का प्रयोग आदर्श स्थिति नहीं है। लोकतंत्र की पूर्णता तभी मानी जाएगी जब शासन और समाज आपातकाल की आवश्यकता को समाप्त कर एक ऐसी व्यवस्था स्थापित करें जिसमें हर प्रकार की चुनौती का समाधान संवैधानिक और लोकतांत्रिक ढंग से हो।
परंतु यदि दुष्ट और विघटनकारी तत्व लोकतांत्रिक व्यवस्था का दुरुपयोग कर रहे हों, और उनके प्रति कोई समाधान लोकतांत्रिक प्रक्रिया में उपलब्ध न हो, तो ऐसी स्थिति में कठोरता का प्रयोग क्या अनुचित कहा जा सकता है?
इसलिए अंतिम निष्कर्ष यही है—आपातकाल की आलोचना केवल उसके अस्तित्व के आधार पर नहीं, बल्कि उसकी नीयत और प्रभाव के आधार पर होनी चाहिए।
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