आपातकालीन संशोधन और संविधान पर पुनर्विचार: एक आवश्यकता

आपातकालीन संशोधन और संविधान पर पुनर्विचार: एक आवश्यकता

पिछले कुछ दिनों से संविधान और आपातकाल के दौरान किए गए संशोधनों पर पुनर्विचार की चर्चा तेज हो गई है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख श्री मोहन भागवत जी ने यह विचार रखा कि 1976 में आपातकाल के दौरान संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए शब्द 'पंथनिरपेक्षता' और 'समाजवाद' पर नई संसद को पुनर्विचार करना चाहिए। इस विचार का सत्ता पक्ष धीरे-धीरे समर्थन करता दिख रहा है, जबकि विपक्ष, विशेषकर नेहरू-गांधी परिवार के नेतृत्व में, इसका तीव्र विरोध कर रहा है।

मैं इस संवेदनशील विषय की शुरुआत एक प्रतीकात्मक कहानी से करना चाहता हूँ। कल्पना कीजिए कि एक राजा एक निर्दोष दंपत्ति को बिना किसी अपराध के 18 महीने के लिए अलग-अलग कारावास में बंद कर देता है। महिला को इस अवधि में एक संतान होती है। राजा यह प्रचारित करता है कि यह संतान उसी पति की है, लेकिन पति इस दावे को अस्वीकार करता है। जब डीएनए परीक्षण की मांग होती है, तो राजा इसका विरोध करता है। ऐसे में समाज के सामने प्रश्न उठता है — क्या बिना प्रमाण के उस संतान को वैध माना जा सकता है?

यह कहानी आपातकाल की राजनीतिक स्थिति का प्रतीक है। आपातकाल में संविधान को और संविधान-निर्माण की प्रक्रिया को जैसे अलग-अलग कारावास में डाल दिया गया। संसद की स्वतंत्रता बाधित की गई, न्यायपालिका पर नियंत्रण स्थापित किया गया, विपक्ष के अनेक नेताओं को जेल में डाल दिया गया। ऐसे में संविधान में किए गए संशोधन क्या वास्तव में लोकतांत्रिक प्रक्रिया से हुए थे? क्या उन्हें डॉ. आंबेडकर के संविधान का अंग माना जा सकता है?

विपक्ष, जो स्वयं को आंबेडकर के संविधान का रक्षक बताता है, इस प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थ है कि क्या 42वां संविधान संशोधन, जिसे आपातकाल के दौरान पारित किया गया, डॉ. आंबेडकर की मूल भावना के अनुरूप था? क्या वह संसद की स्वतंत्र, विवेकपूर्ण सहमति से हुआ था?

इस पृष्ठभूमि में यह मांग की जा रही है कि संसद आपातकाल में किए गए सभी संशोधनों की समीक्षा करे। मैं इस मांग का समर्थन करता हूं। यह लोकतंत्र की शुद्धि के लिए आवश्यक है। यह कहना बिल्कुल उचित है कि संशोधन की प्रक्रिया पर यदि संदेह है, तो उस पर लोकतांत्रिक पुनर्विचार होना चाहिए। लेकिन मैं यह भी स्पष्ट करना चाहता हूं कि इसका यह अर्थ नहीं होना चाहिए कि प्रस्तावना से 'समाजवाद' और 'पंथनिरपेक्षता' जैसे शब्द हटा दिए जाएं।

मैं यह स्पष्ट रूप से मानता हूँ कि —

  1. समाजवाद का अर्थ है — समाज की सामूहिक भलाई, संसाधनों पर समान अधिकार, और आर्थिक विषमता का समुचित नियंत्रण। यह विचार भारतीय संस्कृति और संविधान की आत्मा के निकट है।
  2. पंथनिरपेक्षता का अर्थ है — राज्य का किसी धर्म के प्रति पक्षपात न करना। इसका उद्देश्य सांप्रदायिकता से मुक्ति दिलाना है, न कि किसी धर्म का विरोध करना। यह भारत जैसे बहुधार्मिक राष्ट्र के लिए आवश्यक मूल्य है।

इसलिए मेरी स्पष्ट राय है कि आपातकाल में जो संशोधन मनमाने ढंग से किए गए, उन पर संसद को पुनर्विचार करना चाहिए। यदि किसी संशोधन को निरस्त या परिवर्तित करना हो, तो वह कार्य जनता की सीधी सहमति से होना चाहिए — जनमत-संग्रह या व्यापक सार्वजनिक बहस के माध्यम से। यह निर्णय केवल संसद की बहुमत की शक्ति से नहीं लिया जाना चाहिए।

राजनाथ सिंह जी ने इस विषय पर जो मत प्रकट किया है, उससे मैं असहमत हूं। वहीं प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी और संघ प्रमुख श्री मोहन भागवत ने अभी तक इस विषय पर कोई स्पष्ट टिप्पणी नहीं की है। मेरा विनम्र आग्रह है कि इस संवेदनशील विषय पर सार्वजनिक टिप्पणी करते समय अत्यंत सावधानी बरती जाए। वर्तमान में देश के सामने आर्थिक, सामाजिक और अंतरराष्ट्रीय स्तर की कई अधिक महत्वपूर्ण चुनौतियाँ हैं। यह विषय फिलहाल हमारी प्राथमिकताओं में सबसे ऊपर नहीं होना चाहिए।