संशोधित संस्करण:
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भारत में अपराध संबंधी कानून स्वतंत्रता से लगभग आठ वर्ष पूर्व ही बनाए गए थे। अंग्रेज शासकों ने उस समय की परिस्थितियों और अपनी सुविधानुसार ये कानून तैयार किए थे। उन कानूनों में यह मान्यता थी कि यदि कोई व्यक्ति किसी अपराध की सूचना देता है, तो वह सूचना प्रथम दृष्टया सत्य मानी जाएगी। इस कारण बिना किसी गहन जाँच के ही रिपोर्ट दर्ज कर ली जाती थी।
इसी प्रकार न्यायालयों में भी यह धारणा प्रचलित थी कि सामान्यतः लोग सच बोलते हैं; इसलिए यदि दो व्यक्तियों ने गवाही दे दी, तो उसे सत्य माना जाता था।
किन्तु वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों में स्थिति इसके बिल्कुल विपरीत हो चुकी है। अब अधिकांश लोग झूठ बोलने लगे हैं, और सच बोलने वालों की संख्या अत्यंत अल्प — लगभग एक या दो प्रतिशत — रह गई है। ऐसे में यह आवश्यक है कि वर्तमान कानूनों में उपयुक्त संशोधन किए जाएँ।
नए प्रावधानों के अंतर्गत यह माना जाना चाहिए कि किसी अपराध की सूचना स्वयमेव सत्य न मानी जाए, बल्कि उस पर आवश्यक जाँच-पड़ताल के पश्चात ही अपराध माना जाए। इसी प्रकार न्यायालयों को भी यह सिद्धांत अपनाना चाहिए कि किसी व्यक्ति के कथन को केवल कथन के आधार पर सत्य नहीं माना जा सकता; उसे पर्याप्त परीक्षण और प्रमाण की कसौटी पर परखा जाना चाहिए।
वर्तमान व्यवस्था में न्यायपालिका प्रायः पुलिस को अविश्वसनीय मानती है। नई व्यवस्था में यह दृष्टिकोण बदला जाएगा, और पुलिस को एक संगठित प्रशासनिक तंत्र का उत्तरदायी अंग मानते हुए अधिक विश्वसनीय माना जाएगा।
साथ ही, यह भी प्रावधान किया जाएगा कि यदि कोई सामान्य नागरिक झूठ बोलता है तो उसे साधारण दंड दिया जाए, परंतु यदि कोई पुलिस अधिकारी झूठ बोले, तो उसे कठोर दंड दिया जाए। क्योंकि नई व्यवस्था में पुलिस विभाग को समाज के प्रति अधिक जिम्मेदार और विश्वसनीय संस्था के रूप में स्थापित किया जाएगा।
 
    
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