धर्म परिवर्तन कितनी स्वतंत्रता कितना अपराध

धर्म शब्द प्राचीन समय में गुण प्रधान रहा है । धर्म स्वयं एकवचन है बहुवचन नहीं । जब भारत गुलाम हुआ तब भारत में पहचान प्रधान शब्द धर्म के साथ जुड गया । धर्म शब्द द्विअर्थी हो गया । यही कारण है कि भारतीय व्यवस्था में धर्म परिवर्तन की कोई चर्चा नहीं हुई क्योंकि पहचान प्रधान धर्म तो बदल सकता है किन्तु गुण प्रधान नहीं । मेरी चर्चा का उपरोक्त विषय सिर्फ पहचान प्रधान धर्म तक सीमित है गुण प्रधान से नहीं ।

पहचान प्रधान धर्म संगठन के रूप में होते हैं । यदि किसी धर्म का स्वरूप संस्थागत हो तो कोई समस्या नहीं होती किन्तु जब धर्म संगठन का रूप ग्रहण कर लेता है तब उसमें संख्यात्मक विस्तार की छीना-झपटी शुरू हो जाती है । यह छीना- झपटी ही घातक हो जाती है । जब तक हिन्दू धर्म संगठनात्मक स्वरूप से दूर रहा तब तक कोई टकराव नहीं आया क्योंकि हिन्दू संस्कार गुलामी सह सकता है किन्तु गुलाम बना नहीं सकता, अत्याचार सह सकता है किन्तु कर नहीं सकता, अपनों पर अत्याचार कर सकता है किन्तु दूसरों पर नहीं कर सकता, किसी को धर्म से निकाल सकता है किन्तु दूसरे को अपने धर्म में शामिल नहीं कर सकता । हिन्दुत्व को गर्व है कि उपरोक्त व्यवस्थाओं से सुसज्जित वह दुनियां का अकेला धर्म है और आज तक सब प्रकार के आक्रमणों में नुकसान उठाने के बाद भी अपनी मान्यता पर कायम है ।

हिन्दू धर्म जब तक इस प्राचीन संस्कार तक सीमित रहा तब तक इस्लाम और इसाइयों की पौ बारह रही । वे लोभ, लालच, दबाव अथवा धार्मिक कमजोरियों का लाभ उठाकर अपनी संख्या विस्तार करते रहे किन्तु जब आर्य समाज या संघ परिवार ने बाधा पैदा की तब मुसलमान हिंसा पर आ गये और अनेक आर्य विद्वानों की हत्या कर दी। स्वतंत्रता के बाद के सत्तर वर्षो तक जो सरकारें शासन में रही उन्होंने अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के नाम पर मुसलमानों इसाइयों को संख्या विस्तार में पूरा संरक्षण दिया । संख्या विस्तार के लिये लोभ, लालच अथवा बल प्रयोग को अन्देखा किया गया । एक-दो प्रदेशो ने धर्म स्वातंत्र विधेयक लागू किया किन्तु बाद में धीरे-धीरे उसे भी निष्क्रिय कर दिया गया क्योंकि अल्पसंख्यक वोट राजनीतिक सत्ता का एक मजबूत हथियार बन गया । धर्म निरपेक्षता का अर्थ बदलकर अल्पसंख्यक तुष्टीकरण कर दिया गया । हिन्दू कोड बिल बनाकर मुसलमानों को चार विवाह तक छूट दी गई तो हिन्दुओं को एक विवाह तक सीमित किया गया । अल्पसंख्यक वोट वृद्धि के उददेष्य से इतना निर्लज्ज प्रयास भारत की धरती पर हुआ किन्तु हिन्दू कुछ नहीं कर सकता था । हिन्दुओं की जनसंख्या धीरे-धीरे घटने लगी किन्तु वह मन मसोस कर रहा क्योंकि हिन्दू अपने पूर्व संस्कारों से बंधा था और उसका अस्तित्व ही धीरे-धीरे संकट में आ रहा था । संघ परिवार ने खतरे को समझा और समझाया भी किन्तु संघ परिवार की गांधी विरोधी मान्यता ने संघ को हिन्दुओं में विश्वसनीय नहीं होने दिया ।

भले ही धर्म परिवर्तन के मामले में हिन्दू खतरा नहीं समझता किन्तु यह प्रश्न विचारणीय तो है । संख्या विस्तार की छीना-झपटी कहीं हिन्दू समाज में एकाएक विस्फोटक न बन जावे उसके पूर्व ही इस पर गंभीर विचार मंथन आवश्यक है ।

इतिहास गवाह है कि दुनियां में कुल मिलाकर जितनी हत्याएं और अत्याचार हुये हैं उनमें सबसे ज्यादा अत्याचार धार्मिक टकराव के कारण हुये । धार्मिक मान्यता सिर्फ विचारों तक सीमित न होकर सांस्कृतिक, संगठनात्मक तथा राष्ट्रीय स्तर तक को प्रभावित करती है। इस संबंध में मेरी प्रतिष्ठित गांधीवादी सर्वनारायण दास जी से चर्चा हुई । उन्होंने धर्म परिवर्तन के संबंध में चर्चा करते समय यह बताया कि गांधी एक ऐसे व्यक्ति रहे हैं जिसके जीवन पर गीता के बाद Sermon on the mount का ही सर्वाधिक प्रभाव था, जिसके मित्रों और प्रशंसकों की संख्या उस देश में भी अनगिनत थी, जिसकी सल्तनत के खिलाफ भारत जूझ रहा था और उन मित्रों व प्रशंसकों में ईसाई धर्माचार्यो की संख्या कम नहीं थी, जिसकी पहली जीवनी लिखने का श्रेय दक्षिण अफ्रिका के रेवरेंड डोक को है, जिसके नेतृत्व में चले स्वराज्य-आन्दोलन में अमेरिका में धर्मप्रचार के लिये भारत आये रेवरेंड कैथान ने भाग लिया था, जिसके लिये इस अमेरिकी पादरी को ब्रिटिश हुकूमत ने प्रथम देश निकाला और फिर जेल की सजा दी थी, इंग्लैंड के वैभव भरे जीवन का त्याग कर मीरा बहन (मिस स्लेड) सरला बहन मार्जरी साइक्स जैसी कुमारिकाओं ने जिसकी छाया मे रहना स्वीकार कर लिया और जिसके बताये सेवा कार्यों में आजीवन तल्लीन रही । उस गांधी ने खीस्ती मिशनरियों के धर्मान्तरण-सम्बन्धी क्रियाकलाप को सर्वथा अधार्मिक ही करार दिया था । मिशनरियों द्वारा कुष्ठ सेवा, आरोग्य आदि क्षेत्रों में की जा रही सेवा के लिये गहरा प्रशंसा-भाव रहते हुये भी धर्मान्तरण की दृष्टि रखकर किये जाने की वजह से गांधी जी की नजर में उस सेवा की कीमत बहुत घट जाती थी । सेवा दूषित हो जाती थी । इस तरह गांधी भी धर्म परिवर्तन को अच्छा मार्ग नहीं मानते थे ।

धर्म परिवर्तन करना कोई सामान्य मत परिवर्तन नहीं है क्योंकि इससे संस्कृति तथा जीवन पद्धति में भी बदलाव आता है । यदि पूरा परिवार ही धर्म बदल ले तब तो बडी समस्या नहीं किन्तु एक सदस्य बदल ले तो या तो टकराव होगा या विघटन और यदि वह प्रमुख है तो अन्य सदस्यों की स्वतंत्रता पर आक्रमण । इसलिये धर्म परिवर्तन करने से बचना चाहिये । फिर भी यदि कोई व्यक्ति स्वेच्छा से वैचारिक रूप से सोच समझकर प्रतिबद्ध होकर धर्म बदलना चाहे तो उसे किसी भी कानून के द्वारा नहीं रोका जा सकता । व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामाजिक सहजीवन की अपनी-अपनी सीमाएं है । धर्म परिवर्तन को सामाजिक स्तर पर निरूत्साहित करना चाहिये किन्तु किसी कानून या बल प्रयोग द्वारा नहीं रोका जा सकता क्योंकि यह उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता है ।

इस स्थिति में हमारे पास बीच का मार्ग यही है कि यदि कोई व्यक्ति या समूह धर्म परिवर्तन को प्रोत्साहित करता है, तो उस कार्य को असामाजिक कार्य मानकर ऐसे व्यक्ति का सामाजिक बहिष्कार किया जाये । यदि कोई व्यक्ति या परिवार धर्म परिवर्तन के लिये लोभ, लालच या भय का उपयोग करे तो ऐसे कार्य को अपराध  मानकर दण्ड की व्यवस्था की जाये । धर्म परिवर्तन एक विशेष प्रभाव डालता है इसलिये ऐसे किसी भी धर्म परिवर्तन की सामाजिक अथवा प्रशासनिक जांच उपरांत ही उसे परिवर्तित माना जाये । फिर भी यदि कोई व्यक्ति घोषित रूप से धर्म न बदलकर किसी अन्य विधि से भी पूजा पाठ करे किन्तु न अपना नाम बदले न धर्म, तो वह कर सकता है । इसमें एक बात और जुडनी चाहिये कि इसाइयत और इस्लाम में बहुत फर्क है । इसाइयत व्यक्ति के मौलिक अधिकार मानती हैं किन्तु इस्लाम नहीं मानता । इस्लाम व्यक्ति को धार्मिक संगठन का सदस्य मानता है अर्थात व्यक्ति की स्वतंत्रता मान्य नहीं । यह खतरनाक बदलाव है । इसलिये कोई भी धर्म परिवर्तन करके यदि मुसलमान बनता है तो उसकी विशेष शर्त होनी चाहिये कि वह धार्मिक इस्लाम तक सीमित हो सकता है किन्तु संगठित इस्लाम का सदस्य नहीं हो सकता ।

हिन्दुओं के भी कुछ संगठन घर वापसी के नाम पर धर्म परिवर्तन की मुहिम चलाते है । यह भी अच्छा कार्य नहीं है जब तक अन्य लोग धर्म परिवर्तन के प्रयत्नों को बंद नहीं करते तब तक हिन्दू संगठनों की भी सलाह नहीं दी जा सकती कि वे शुद्धि आंदोलन बंद कर दे । मैं मानता हूँ कि भारतीय संस्कृति ऐसी किसी घर वापसी को ठीक नहीं मानती किन्तु यदि विशेष परिस्थिति में कोई ऐसा करता है तो उसे एकपक्षीय रोका भी नहीं जा सकता । मैं यह भी समझता हूँ कि यदि घर वापसी की मुहिम तेज हो जाये तो मुसलमान और ईसाई अपने आप धर्म परिवर्तन पर प्रतिबंध के लिये मांग करने लगेंगे । फिर भी मैं घर वापसी की अपेक्षा अधिक अच्छा समझता हूँ कि कानून के द्वारा इस गंदे खेल को रोका जाये । यदि कानून के द्वारा धर्म परिवर्तन कराने पर प्रतिबंध लगता है तो घर वापसी पर भी उसी तरह का कानून लागू होना चाहिये । जिस तरह सत्तर वर्षो तक बुरी नीयत से अल्पसंख्यकों को प्रोत्साहित किया गया । उसी तरह बुरी नीयत से बहुसंख्यकों को यदि प्रोत्साहित किया गया तो यह हिन्दू धर्म के लिये एक कलंक होगा । आज हिन्दू धर्म गर्व से अपने को विचारधारा और जीवन पद्धति तक सीमित मानता है । यदि हम भी अन्य सम्प्रदाय का अनुकरण करने लगेंगे तो हिन्दू भी धर्म की जगह सम्प्रदाय के रूप में माना जाने लगेगा और यह हिन्दू धर्म के लिये दीर्घकालिक क्षति होगी । सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे उसका सबसे अच्छा समाधान है धर्म स्वातंत्र विधेयक । मैं जानता हूँ कि भारत में ऐसा कानून बनाना बहुत पेचीदा मामला है । इसलिये वर्तमान समय में वर्तमान धर्म स्वातंत्र विधेयक जो कुछ प्रदेशो में लागू है उसे पूरे भारत में लागू कर देना चाहिये । एक दूसरा तरीका यह भी है कि समान नागरिक संहिता लागू करके धर्म जाति के मामले सामाजिक मानकर कानून उससे दूर हो जाये । अब तक मुसलमानों के पक्ष में खडे होकर सरकार ने हिन्दुओं के विरूद्ध जो हिन्दू कोड बिल लागू किया उसे समाप्त कर दिया जाये ।