क्या हो बेरोजगारी की परिभाषा ?
ज्ञान तत्त्व 447
बेरोजगारी की क्या हो परिभाषा :
मेरे कई साथियों ने यह सुझाव दिया कि हमें बेरोजगारी विषय पर भी व्यापक चर्चा करनी चाहिए। बेरोजगारी की परिभाषा सारी दुनिया में आप गूगल पर या किसी अन्य किताब में खोज लीजिए। आपको जो भी परिभाषा मिलेगी, वह पूरी तरह गलत है। बेरोजगारी की दुनिया में नई परिभाषा बनाने की जरूरत है। अब तक रोजगार के आधार पर दो वर्ग बने हुए हैं एक है रोजगार प्राप्त और दूसरा है बेरोजगार। अब एक तीसरा वर्ग बनाए जाने की जरूरत है। उसमें एक है रोजगार प्राप्त, दूसरा है ‘उचित रोजगार की प्रतीक्षा में सक्रिय’ और तीसरा है बेरोजगार। इसका अर्थ यह हुआ कि बेरोजगार वही व्यक्ति माना जाएगा जिसे किसी स्थापित व्यवस्था द्वारा घोषित न्यूनतम श्रम मूल्य पर भी रोजगार उपलब्ध ना हो। इसका अर्थ यह हुआ कि जो व्यक्ति अपने योग्यतानुसार रोजगार की प्रतीक्षा में बेरोजगार है वह बेरोजगार नहीं माना जा सकता। क्या ऐसे प्रतीक्षारत को रोजगार देना समाज की या राज्य की जिम्मेदारी हो सकती है ... मेरे हिसाब से नहीं। कल्पना कीजिए कि एक व्यक्ति वर्तमान परिस्थितियों में भूखा होने के कारण ₹200 में काम करने को मजबूर है और एक दूसरा व्यक्ति पढ़ा-लिखा होने के कारण हजार रुपए में भी काम करने को तैयार नहीं है। क्या ₹200 में काम कर रहे व्यक्ति को रोजगार प्राप्त और हजार रुपए में काम न करने वाले को बेरोजगार माना जा सकता है। सच बात यह है कि ऐसी गलत और भ्रामक परिभाषा बुद्धिजीवियों ने षडयंत्रपूर्वक दुनिया में बना रखी है, इस परिभाषा को बदले जाने की जरूरत है। व्यक्ति की आवश्यकतायेँ तीन प्रकार की हैं १.मौलिक आवश्यकता २.सुविधा संबंधी आवश्यकता और ३.संपन्नता संबंधी आवश्यकता। हम व्यक्ति की मौलिक या प्राकृतिक आवश्यकताओं की तो पूर्ति को अपनी जिम्मेदारी मान सकते हैं, लेकिन उसकी इच्छाओं की पूर्ति को हम रोजगार के साथ नहीं जोड़ सकते। वह पूरी करना हमारी जिम्मेदारी भी नहीं है। दुर्भाग्य से धूर्त्त लोगों ने बेरोजगारी की गलत परिभाषा बना दी है जिसके कारण बेरोजगारों की वास्तविक संख्या छुप जाती है और प्रतीक्षारत लोगों को बेरोजगार मान लिया जाता है। इस विषय पर कल भी चर्चा जारी रहेगी । (क्रमशः)
ज्ञान तत्त्व 448
बेरोजगारी की क्या हो परिभाषा : गतांक GT-447 से आगे
ज्ञान तत्व के पूर्व अंक 447 के आगे- हम बेरोजगारी पर चर्चा कर रहे हैं। प्रत्येक व्यक्ति के पास तीन प्रकार की योग्यताएं हो सकती हैं - एक है श्रम, दूसरा बुद्धि और तीसरा धन। वैसे तो प्रत्येक व्यक्ति के पास आंशिक रूप से तीनों ही क्षमताएं होती हैं लेकिन यदि हम विशेष योग्यता का आकलन करें तो श्रमिक के पास मुख्य स्रोत श्रम होता है शारीरिक श्रम। बुद्धिजीवी के पास श्रम तो होता ही है, साथ में बौद्धिक क्षमता भी होती है। धन वाले के पास श्रम भी होता है, बुद्धि भी होता है, धन भी होता है। इस तरह यदि किसी व्यक्ति के अक्षम या निराश्रित होने की संभावना अधिक होती है तो वह होता है श्रमिक क्योंकि उसके पास केवल एक योग्यता है। शिक्षित या बुद्धिजीवी के पास दो योग्यताएं होती हैं, इसलिए यह बात पूरी तरह झूठ है कि कोई शिक्षित व्यक्ति भी बेरोजगार हो सकता है या भूखा हो सकता है। क्योंकि शिक्षित व्यक्ति के पास कम से कम दो योग्यताएं उपलब्ध होती हैं शारीरिक श्रम और बुद्धि। अगर उसे बौद्धिक रोजगार नहीं मिल पाता है, तब भी वह बेरोजगार नहीं रहेगा क्योंकि श्रम तो उसके पास है ही। जो भी लोग कहते हैं कि शिक्षित व्यक्ति भी बेरोजगार होता है वे लोग वास्तव में श्रम शोषक है, क्योंकि शिक्षित व्यक्ति बेरोजगार हो ही नहीं सकता। वर्तमान भारत में जो शिक्षित बेरोजगार दिख रहे हैं, उनमें से कोई भी ऐसा नहीं है, जो न्यूनतम श्रम मूल्य पर योग्यता अनुसार काम करने के लिए तैयार हो। वास्तव में वह अच्छे रोजगार की प्रतीक्षा में है, बेरोजगार नहीं। यदि हमने बेरोजगारी की परिभाषा सुधार दी तो भारत में बेरोजगारों का आंकड़ा अपने आप बहुत कम हो जाएगा। क्योंकि जो व्यक्ति श्रम करने के लिए तैयार नहीं होगा वह बेरोजगारों की सूची से बाहर निकल जाएगा। दुनिया भर की घिसी-पिटी सत्य परिभाषाएं ही भारत में बेरोजगारी की गलत परिभाषा प्रचलित करने का मुख्य कारण है। हमें बेरोजगारी की सही परिभाषा के आधार पर आकलन करना चाहिए।
यह बात तय है कि शिक्षित कभी बेरोजगार हो ही नहीं सकता। जब भी बेरोजगार होगा तो वही हो सकता है, जिसके पास आय का सिर्फ एक साधन श्रम हो। तीसरी बात विचारणीय है कि वर्तमान भारत में श्रमजीवी अधिक बेरोजगार हैं या बुद्धिजीवी। इस विषय पर रिसर्च किया गया तो यह बात सामने आई कि कोई भी बुद्धिजीवी किसी भी परिस्थिति में बेरोजगार नहीं हो सकता। बेरोजगारी की गलत परिभाषा उन्हें बेरोजगार बनाती है। स्वतंत्रता के तत्काल बाद श्रमजीवी बहुत बड़ी मात्रा में बेरोजगार थे और बुद्धिजीवियों की कमी थी, शिक्षा का अभाव था, हम शिक्षा के मामले में बहुत पीछे थे। इसलिए शिक्षित लोगों का वेतन बहुत बढ़ाया गया, साथ में शिक्षा को महत्वपूर्ण भी बनाया गया। जिससे श्रमिक लोग शिक्षा की तरफ आकर्षित हों। लेकिन वर्तमान भारत में शिक्षित लोगों की संख्या बहुत अधिक हो गई है, नौकरी-पेशा सरकारी कर्मचारियों का वेतन भी बहुत बढ़ गया है और श्रम तथा शिक्षा के बीच आर्थिक फर्क भी बहुत हो गया है। जहां एक श्रमजीवी को 250 से ₹300 प्रतिदिन मिल रहा है वही एक सामान्य बुद्धिजीवी को 1000 से भी अधिक प्रतिदिन मिल रहा है। बुद्धिजीवियों को सुविधा और सम्मान भी अधिक मिल रहा है, इसलिए अधिक से अधिक लोग शिक्षित होना चाहते हैं, अधिक से अधिक लोग सरकारी नौकरी में जाना चाहते हैं। यही बेरोजगारी का मुख्य कारण है कि शिक्षित और अशिक्षित के बीच सुविधाओं का बहुत अंतर हो गया है। इस समस्या का समाधान यह है कि पहली बात श्रम की मांग और श्रम का मूल्य तथा श्रम का सम्मान बढ़ाया जाए, दूसरी बात शिक्षा का बजट पूरी तरह बंद कर दिया जाए और वह बजट श्रममूल्य वृद्धि में लगाया जाए, तीसरी बार सरकारी कर्मचारियों की वेतन वृद्धि पूरी तरह रोक दी जाए और यदि संभव हो तो धीरे-धीरे वेतन कम कर दिया जाए। मेरे विचार से बेरोजगारी का बहुत जल्दी समाधान निकल जाएगा। श्रम और बुद्धि तथा शिक्षा और ज्ञान के बीच बढ़ती हुई दूरी को कम करना ही वर्तमान समस्या का समाधान है।
मुझे तीन प्रश्नों के उत्तर चाहिए थे जिन पर अभी तक कोई उत्तर नहीं आया। पहली बात यह है कि हम गरीब, ग्रामीण, श्रमजीवी, कृषि उत्पादकों के उत्पादन और उपभोग की वस्तुओं पर टैक्स लगाकर शिक्षा पर खर्च कर रहे हैं, क्या यह न्यायोचित है? दूसरा प्रश्न है कि क्या हम एक पांच व्यक्तियों के परिवार को कम से कम ₹300 प्रतिदिन के रोजगार की गारंटी नहीं दे सकते? क्या हम सरकारी कर्मचारियों का वेतन बाजार के अनुसार करके, नरेगा की मदद नहीं कर सकते? क्या हम नरेगा की मजदूरी ₹300 प्रतिदिन प्रति परिवार नहीं कर सकते? तीसरा मेरा प्रश्न यह है कि क्या शिक्षा पर होने वाला खर्च शिक्षा प्राप्त कर रहे लोगों से या शिक्षा प्राप्त करके लाभ उठा रहे लोगों से नहीं लिया जाना चाहिए? क्या शिक्षा प्राप्त व्यक्ति उचित रोजगार की प्रतीक्षा में होने के बाद भी बेरोजगार माना जाना चाहिए? इन प्रश्नों पर चर्चा होने से ही न्यायोचित दिशा में हम बढ़ सकेंगे। मैंने यह कभी नहीं कहा है कि शिक्षा को बंद कर दिया जाए। मैंने यह कहा है कि शिक्षा और रोजगार इन दोनों के बीच इस प्रकार संतुलन बिठाया जाए कि शिक्षा रोजगार के लिए ना हो, योग्यता के लिए हो, ज्ञान के लिए हो। शिक्षा नौकरी के लिए ना हो, यदि शिक्षा और नौकरी को एक साथ जोड़ा जाएगा, तो यह श्रम के साथ अन्याय होगा। मैं कभी इस पक्ष में नहीं हूँ कि श्रम का शोषण करने के बाद शिक्षा को प्रोत्साहित किया जाए। मेरे विचार से या तो शिक्षा और श्रम दोनों को बाजार में स्वतंत्र छोड़ दिया जाए अन्यथा यदि किसी की मदद करनी जरूरी हो तो श्रम की मदद करनी चाहिए शिक्षा की नहीं।
महंगाई और बेरोजगारी की जो परिभाषाएं बनी हुई है, वह परिभाषाएं गलत हैं। विदेश की परिभाषा को भारत ने आंख बंद करके स्वीकार कर लिया है। भारत के दोनों दलों के नेता महंगाई और बेरोजगारी की परिभाषा में सुधार करने के लिए तैयार नहीं है। मैं इस बात की चुनौती देता हूँ कि यह दोनों परिभाषाएं गलत हैं । महंगाई तो लगातार घट रही है, लेकिन बेरोजगारी भी गलत परिभाषा के कारण बढ़ी हुई बताई जा रही है । वास्तव में शिक्षित व्यक्ति बेरोजगार हो ही नहीं सकता, जब तक कि श्रम की मांग बनी हुई है। मैं चाहता हूँ कि हम लोग महंगाई और बेरोजगारी पर खुलकर चर्चा करें, और सभी राजनेताओं को खुली चुनौती दें कि वह महंगाई बेरोजगारी पर चर्चा करें । इन दोनों शब्दों ने 70 वर्षों तक हम लोगों को भ्रम में डालकर रखा और उसका यह परिणाम है कि राजनीतिक दल अपनी दुकानदारी चलाते रहते हैं, सरकारी कर्मचारी इसका लाभ उठाते हैं और हम नागरिक इससे ठगे जाते हैं । हम लोग प्रतिदिन 8:00 बजे से 9:00 तक जूम पर बैठकर अलग-अलग विषयों पर चर्चा करते हैं। किसी भी दिन इन दोनों विषयों पर हम चर्चा करने के लिए तैयार हैं। इस विषय पर कोई नेता चर्चा करना चाहे तो वह आ सकता है। हम इन विषयों पर चर्चा करने के लिए हर समय तैयार हैं। रात 8:00 बजे से 9:00 तक चर्चा के दिए हम देश के सभी नेताओं को चुनौती देते हैं।
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