मैंने महिला–पुरुष संबंधों के संदर्भ में हमारे धर्मगुरुओं और राजनेताओं की भूमिका पर आंशिक चर्चा की थी।
पिछले दो दिनों में मैंने महिला–पुरुष संबंधों के संदर्भ में हमारे धर्मगुरुओं और राजनेताओं की भूमिका पर आंशिक चर्चा की थी। आज मैं इस चर्चा को समाप्त करते हुए अपना अंतिम विचार रखना चाहता हूँ।
प्रकृति का सामान्य नियम है कि महिला–पुरुष के व्यक्तिगत, शारीरिक और भावनात्मक संबंधों में पुरुष का स्वभाव आक्रामक और महिला का स्वभाव आकर्षक होना चाहिए। यह दोनों प्रवृत्तियाँ स्वाभाविक रूप से उनके व्यक्तित्व का हिस्सा होनी चाहिए। यदि पुरुष आकर्षण का प्रतीक बन जाए या महिला आक्रामक स्वभाव धारण कर ले, तो यह प्रकृति-विरुद्ध स्थिति मानी जाएगी।
किन्तु लंबे समय से मैं देख रहा हूँ कि हमारे धर्मगुरु और राजनेता, दोनों ही इस दिशा में प्रकृति के विपरीत कार्य कर रहे हैं। धर्मगुरु महिलाओं को समझाते हैं कि वे अपने पहनावे, रहन-सहन और व्यवहार में आकर्षण न रखें। दूसरी ओर, राजनेता महिलाओं को आत्मरक्षा की ट्रेनिंग, मार्शल आर्ट और आक्रामकता अपनाने की प्रेरणा देते हैं।
इस विरोधाभास के कारण यह स्पष्ट नहीं है कि हम समाज में महिलाओं को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं—एक ओर उन्हें आक्रामक बनाया जा रहा है, तो दूसरी ओर पुरुषों को अपनी आक्रामकता छोड़ने की सलाह दी जा रही है।
मेरा मत है कि इस विषय में धर्मगुरुओं और राजनेताओं को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। यह विषय व्यक्तिगत और पारिवारिक निर्णय का है। प्रत्येक परिवार स्वयं तय करे कि उनकी परिस्थिति में महिला को आकर्षक रहना चाहिए या आक्रामक, और पुरुष को कैसा व्यवहार अपनाना चाहिए।
सामान्य परिस्थितियों में महिलाओं का आकर्षक और पुरुषों का आक्रामक होना स्वाभाविक और उचित है। विशेष परिस्थितियों में परिवार अपनी आवश्यकता और परिस्थिति के अनुसार इसमें बदलाव कर सकता है। समाज के संतुलन के लिए आवश्यक है कि धर्मगुरु और राजनेता इस व्यक्तिगत क्षेत्र से बाहर रहें।
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