अरावली बचाओ आंदोलन के राजनीतिक प्रभावों से भयभीत होकर सरकार ने अपना कदम पीछे खींच लिया।
अरावली बचाओ आंदोलन के राजनीतिक प्रभावों से भयभीत होकर सरकार ने अपना कदम पीछे खींच लिया। यह उसकी राजनीतिक मजबूरी हो सकती है, लेकिन सामाजिक स्तर पर इस प्रकार की आंदोलनों की दुकानदारी को कुचलना आवश्यक है। अरावली पर्वत का संरक्षण उस क्षेत्र के कुछ लोगों की मांग हो सकती है, किंतु यदि राजस्थान के लोगों को कोयला चाहिए तो वह कोयला छत्तीसगढ़ देगा। यदि उन्हें बिजली चाहिए, तो वे स्वयं बिजली पैदा नहीं कर पाएँगे। यदि उन्हें मोबाइल फोन चाहिए, तो मोबाइल बनाने वाली कंपनियाँ भी कहीं और स्थित होंगी।
यह एक अत्यंत गंभीर प्रश्न है कि कुछ लोग “जंगल बचाओ” की वकालत करते हैं, कुछ “नदी बचाओ” की, कुछ “पहाड़ बचाओ” की बात करते हैं, और कुछ ऐसे भी हैं जो रेल और सड़क बनाने की मांग करते हैं। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि खेती की जमीन किसी अन्य कार्य में नहीं लगनी चाहिए।
अब प्रश्न यह है कि जंगलों का विस्तार भी हो, रेल और सड़कें भी बनें, बाँध और तालाब भी तैयार हों, मकान भी बनें और खेती की जमीन भी कम न हो—तो यह सब एक साथ कैसे संभव है? क्या कोई ऐसा जादुई तरीका है जिससे सभी आवश्यकताएँ एक साथ पूरी हो सकें?
क्यों न सभी लोग मिल-बैठकर यह तय करें कि कितनी जमीन जंगल के लिए होगी, कितनी तालाबों के लिए, कितनी खेती के लिए और कितनी सड़क व रेल के लिए। लेकिन समस्या यह है कि राजस्थान के लोगों को रेल चाहिए—हवा में चाहिए, आसमान में चाहिए, जमीन पर नहीं चाहिए।
इस प्रकार की खोखली दुकानदारी करने वालों को रोका जाना चाहिए। यदि आपको कोयला चाहिए, तो आपको पत्थर भी देना पड़ेगा। यदि आपको मकान चाहिए, तो उसके लिए गिट्टी पहाड़ों से ही आएगी—वह आसमान से नहीं गिरेगी।
Comments