समान नागरिक सहिंता
व्यक्तिगत रूप से नियंत्रित करने के बाद भी अलग-अलग प्रकार से संबंधित है। संविधान में संविधान में बदलाव नहीं किया गया है। उस व्यक्ति को विशेष रूप से उस व्यक्ति के लिए उपयुक्त होना चाहिए जो उस व्यक्ति के लिए उपयुक्त हो. संविधान में बदलने के लिए बदलना होगा। एक राष्ट्र के संविधान में निहित है।
नागरिकता ग्रहण करने के बाद भी न व्यक्ति की सामाजिक मान्यता समाप्त होती है न ही उसका मौलिक अधिकार। व्यक्ति जब तक अकेला है तब तक उसे असीम स्वतंत्रता प्राप्त है किन्तु जब व्यक्ति किसी परिवार का सदस्य बन जाता है तब उसकी असीम स्वतंत्रता समान स्वतंत्रता में बदल जाती है। इसी तरह व्यक्ति विश्व समुदाय का सदस्य है। इसलिये उसकी स्वतंत्रता असीम होते हुये भी समान होती है। किसी भी नागरिक को समान स्वतंत्रता ही हो सकती है, असीम नहीं जबकि प्रत्येक व्यक्ति को असीम स्वतंत्रता होती है। इसका अर्थ हुआ कि कोई भी व्यक्ति किसी भी इकाई में शामिल होते ही सम्पूर्ण समर्पण कर देता है किन्तु संपूर्ण समर्पण के बाद भी, इकाई में रहते हुये भी, उसके मौलिक अधिकार सुरक्षित रहते है। किसी नागरिक के मौलिक अधिकार किसी भी परिस्थिति में कम नही किये जा सकते जब तक उसने अपराध न किया हो।
व्यक्ति का व्यक्तिगत आचरण उसकी असीम स्वतंत्रता है और किसी अन्य के साथ उसका व्यवहार नागरिक के रूप में प्रभावित संचालित होता है। यह सामाजिक ताना-बाना जटिल होते हुये भी बिल्कुल साफ-साफ है कि व्यक्ति की व्यक्तिगत भूमिका और सामूहिक भूमिका एक साथ चलती रहती है अर्थात व्यक्ति को व्यक्तिगत मामले में निर्णय लेने की पूरी स्वतंत्रता है और सामूहिक मामलों में वह समूह का निर्णय मानने के लिये बाध्य है। यही व्यक्ति और नागरिक के बीच का महत्वपूर्ण अन्तर है। व्यक्ति अपनी सहमति से नागरिकता स्वीकार करने के लिये स्वतंत्र है किन्तु कोई भी अन्य किसी व्यक्ति को नागरिक बनने के लिये बाध्य नहीं कर सकता। इसलिये असीम स्वतंत्रता व्यक्ति का व्यक्तिगत अधिकार है और उसकी स्वतंत्रता में किसी प्रकार कि बाधा पहुॅचाना अपराध है। आचार संहिता व्यक्ति स्वयं बनाता है और नागरिक संहिता व्यक्ति समूह बनाता है जिस व्यक्ति समूह में वह व्यक्ति स्वयं भी शामिल है तथा जो अपनी आचार संहिता बनाने के लिये स्वतंत्र है। इसका अर्थ हुआ कि आप नागरिकता स्वीकार करने के बाद तब तक अपनी स्वतंत्र आचार संहिता नहीं बना सकते जब तक आप अपनी नागरिकता न बदल ले। किसी व्यक्ति को अपनी नागरिकता बदलने से रोकना या बाधा पहुॅचाना अपराध है यद्यपि अनेक साम्यवादी और मुस्लिम देश इसे अपराध नहीं मानते। वास्तविकता यह है कि संविधान सर्वोच्च होता है। संविधान निर्माण में सभी व्यक्तिओं की बराबर भूमिका होती है। संविधान के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति अपना आचरण करने के लिये बाध्य है क्योंकि उसने अपनी सहमति से नागरिकता स्वीकार कर ली है।
जब भारत का संविधान बना तब संविधान निर्माताओं ने भारत की मौलिक सोच के विरूद्ध विदेशी संविधानों की नकल की। उन्हें मौलिक अधिकार की परिभाषा का ज्ञान नही था, उन्हे व्यक्ति और नागरिक का फर्क भी पूरी तरह स्पष्ट नहीं था, यद्यपि उन्होंने संविधान में दोनों को अलग-अलग करने का भी प्रयास किया। व्यक्ति का व्यक्तिगत आचरण उसकी असीम स्वतंत्रता है और सामाजिक व्यवहार समान स्वतंत्रता। समानता का यह अदभुत तालमेल ही व्यवस्था है किन्तु संविधान लागू होते ही संविधान में असमानता के मनमाने प्रावधान डाल दिये गये। संविधान में स्पष्ट लिखा गया कि कोई भी कानून धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर किसी भी परिस्थिति में कोई भेद नहीं कर सकता। किन्तु उसी के साथ परन्तु लगाकर राज्य को यह अधिकार भी दे दिया गया वह किसी भी प्रकार का कोई भी भेद करने वाला कानून बना सकता है यदि उसे वह कानून जनहित में आवश्यक लगे। यहॉं तक कि संविधान संशोधन का भी अधिकार उसी तंत्र को दे दिया गया जो कानून बनाता हैं और पालन करवाता है। इस तरह अप्रत्यक्ष रूप से वास्तविक लोकतंत्र की हत्या करके एक नकली लोकतंत्र स्थापित कर दिया गया क्योंकि लोकतंत्र की वास्तविक परिभाषा न समझने के कारण विदेशों से उधार ली गई परिभाषा को ही लोकतंत्र मान लिया गया। संविधान की कमजोरी का लाभ उठाने में संविधान निर्माताओं ने ही पहल कर दी। किसी ने न्यायपालिका के अधिकार सीमित कर दिये तो किसी अन्य ने हिन्दू कोड बिल बनाकर इस प्रावधान का दुरूपयोग किया। आगे चल कर तो ऐसा दुरूपयोग करने वालों की बाढ सी ही आ गयी। आदर्श लोकतंत्र में परिवार, गांव, जिला, प्रदेश और केन्द्र अपना-अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखते हुये भी केन्द्रिय संवैधानिक व्यवस्था के सहायक होते है किन्तु संविधान निर्माताओं ने प्राथमिक इकाई परिवार गांव और जिले की व्यवस्था को संविधान से बाहर कर दिया और जाति, धर्म, क्षेत्र, लिंग, उम्र के आधार पर चलने वाली स्वतंत्र व्यवस्थाओं को संविधान का अंग बना दिया। हम देख रहे है कि व्यवस्था को मजबूत करने वाली इकाईयां व्यवस्था से बाहर है दूसरी ओर व्यवस्था को कमजोर करने वाली इकाईयां व्यवस्था का अंग बनी हुई है। एक तरफ हिन्दुओं के लिये हिन्दू कोड बिल को संवैधानिक मान्यता दे दी गई तो दूसरी ओर मुसलमानों को उनका पर्सनल लॉ भी दे दिया गया। इसे संविधान या कानून बनाने वालों की बुरी नीयत न माना जाये तो क्या कहा जाये। किसी कानून को किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत आचरण में तब तक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये जब तक उस व्यक्ति की सहमति से संविधान न बना हो। दूसरी ओर नागरिक सहिंता किसी भी परिस्थिति में किसी व्यक्ति के साथ किसी भी आधार पर कोई भेदभाव नही कर सकती क्योंकि प्रत्येक नागरिक के अधिकार समान होते है। किसी भी परिस्थिति में इन नागरिक अधिकारों को असमान नही किया जा सकता। किन्तु भारत की नकली लोकतांत्रिक व्यवस्था व्यक्ति के व्यक्तिगत मामलों में सब प्रकार के हस्तक्षेप करती है तो नागरिकता के मामले में भी अलग-अलग और असमान कानून बनाती है। भारत में धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्रियता, उम्र, लिंग, आर्थिक स्थिति, व्यावसायिक स्थिति में अलग-अलग कानून बनाकर वर्ग विद्वेष, वर्ग संघर्ष बढाना ही लोकतंत्र सशक्तिकरण का आधार बना दिया गया है। जिस देश में वर्ग विद्वेष, वर्ग संघर्ष ही लोकतंत्र का आधार होगा उस देश में अव्यवस्था बढ़ेगी ही। भारत में अव्यवस्था का बढ़ना इस रददी संविधान का स्वाभाविक परिणाम है।
स्पष्ट है कि परिस्थितियां जटिल है और बिगड़ती जा रही है। व्यक्ति के व्यक्तिगत आचरण में असीम असमानता हो सकती है और नागरिकता के कानून किसी भी परिस्थिति में असमान नही हो सकते। कोई कानून व्यक्ति के नागरिक व्यवहार में भेदभाव नहीं कर सकता जो किया जा रहा है। इसलिये यह बात स्वीकार करनी चाहिये कि आचार संहिता में समानता के प्रयत्न मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है और नागरिक संहिता में असमानता की स्वीकृति अव्यवस्था का आधार है। नागरिक संहिता पूरी तरह समान ही होनी चाहिये क्योंकि प्रत्येक नागरिक के अधिकार समान होते है। अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक, अवर्ण-सवर्ण आदिवासी, महिला-पुरूष, पिछडे क्षेत्र, गरीब-अमीर, हिन्दी-अंग्रेजी, युवा-वृद्ध, किसान-मजदूर, उत्पादक-उपभोक्ता, ग्रामीण-शहरी, शि शिक्षित-अशिक्षित आदि का किसी भी प्रकार से कोई भेद बढ़ाने वाला कानून नहीं बनाया जा सकता। कोई भी व्यवस्था किसी विशेष स्थिति में किसी कमजोर की सहायता कर सकती है किन्तु अधिकार नहीं दे सकती। अधिकार और सहायता का अंतर भी संविधान बनाने वाले नहीं समझ सके तो यह दोष किसका? सामाजिक न्याय के नाम पर जो भी कानून बनायें गये है वे व्यक्ति के सामाजिक जीवन में भेद-भाव और असमानता पैदा करते है। सच्चाई यह है कि अन्याय दूर करने के नाम पर जिस अव्यवस्था को मजबूत किया जा रहा है वह अप्रत्यक्ष रूप से अन्याय है क्योंकि न्याय और व्यवस्था एक दूसरे के पूरक होते है। यदि अव्यवस्था बढेगी तो अन्याय बढेगा ही। व्यवस्था को कमजोर करके न्याय की मांग करना स्वार्थी राजनेताओं का व्यवसाय बन गया है।
स्पष्ट है कि समान नागरिक संहिता पूरी अव्यवस्था का एक बडा समाधान है। संघ परिवार जिस समान नागरिक संहिता की बात करता है वह समान नागरिक सहिंता के विपरीत है। वह समान आचार संहिता को ही नागरिक संहिता के रूप में प्रस्तुत करता है, जो घातक है। महिला हो या पुरूष, किसी को विषेषाधिकार नहीं होना चाहिये। जब हमारे कानून बनाने वालों ने हिन्दू कोड बिल के माध्यम से एक से अधिक विवाह पर रोक लगाई वह रोक महिला और पुरूष की स्वतंत्रता का भी उल्लंघन थी और हिन्दू-मुसलमान के बीच में भेदभाव भी पैदा करने वाली। समान नागरिक सहिंता का अर्थ हिन्दू कोड बिल सरीखा ही कानून मुसलमानों पर लागू करना नहीं हो सकता बल्कि मुसलमानों के समान ही हिन्दुओं को भी पर्सनल लॉ की छूट देकर हिन्दू कोड बिल को खत्म करना होना चाहिये जो न संघ परिवार कहता है न ही मुसलमान समझते है। यदि समान नागरिक सहिंता का स्पष्ट अर्थ समाज को बता दिया जाये कि भारत की सम्पूर्ण संवैधानिक व्यवस्था में 125 करोड व्यक्तिओं को समान अधिकार होगें अर्थात भारत 125 करोड व्यक्तिओं का देश होगा धर्म जातियों या विभिन्न भाषाओं का संघ नही। तब सारे भेद पैदा करने वाली व्यवस्थायें अपने आप समाप्त हो जायेगी। जिस दिन भारत में समान नागरिक सहिंता लागू कर दी जायेगी उसी दिन हिन्दू कोड बिल अपने आप मर जायेगा। गरीब-अमीर के झगडे खत्म हो जायेंगे। महिला-पुरूष के भी बीच झगडे नही रहेंगे। आदिवासी हरिजन सवर्ण जैसे शब्द इतिहास बन जायेंगे। क्षेत्रीयता अथवा भाषा के झगडे़ नही रहेगे। अपने आप समस्यायें जुलझ जायेंगी। सबसे अच्छा तो ये होगा कि समाज में वर्ग विद्वेष पैदा करके राजनैतिक दुकानदारी चलाने वाले राजनेताओं की दुकाने बंद हो जायेगी।
मेरा सुझाव है जैसा कि जैसा है वैसा ही भारत की सभी लोग का एक बडा हल है। इस तरह के जीव सक्रिय अवस्था में हैं।
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